Wednesday, June 25, 2008

सेकुलर मार्क्सवादियों का असली चेहरा

बात शुरू करूं इससे पहले सीपीएम पोलित ब्यूरो के सदस्य एम. के. पंधे के बयान पर गौर फरमाइए। उनका कहना है कि देश के ज्यादातर मुसलमान भारत-अमेरिका परमाणु करार के विरोधी हैं, इसलिए सपा नेता मुलायम सिंह यादव को इसका समर्थन करने से पहले दो बार सोच लेना चाहिए। एम. के. पंधे ने मुलायम को चेतावनी दी है कि अगर करार के मसले पर उन्होंने यूपीए सरकार का समर्थन किया तो उन्हें अपने भरोसेमंद वोट बैंक को खोना पड़ेगा।

क्या पंधे का यह बयान एक राष्ट्रीय मुद्दे पर सार्वजनिक बहस और चर्चा को सांप्रदायिक और धार्मिक जामा पहनाने की कोशिश नहीं है? और, क्या सिर्फ वोट बैंक की वजह से ही वाम दल इस करार का विरोध कर रहे हैं? इन सवालों के जवाब सबके पास हैं, लेकिन इस पर अपनी भड़ास कभी और निकालूंगा। अभी करार, मुस्लिमों के सरोकार और सेकुलर पार्टियों की सांप्रदायिकता की बात।

पंधे भारतीय राजनीति में वैसी पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो धर्म को अफीम मानती है। ऐसे में पंधे का बयान यह बताने के लिए काफी है कि वामपंथी नेताओं की नैतिकता और बुद्धि उनकी विचारधारा की तरह ही लगातार रसातल में जा रही है। भारतीय राजनीति में ऐसे कई उदाहरण हैं जब पार्टियों ने मौका पड़ने पर जाति और धर्म से जुड़े भावनात्मक मुद्दे को तूल देकर सियासी रोटियां सेकी हैं। लेकिन किसी धर्मनिरपेक्ष देश की एक मुख्य पार्टी द्वारा राष्ट्रीय महत्व के करार का धार्मिक आधार पर विरोध करने का यह शायद पहला उदाहरण होगा।

अगर पंधे के हिसाब से सोचा जाए तो फिर बल्ब, टेलीफोन, टेलीविजन, कार, हवाई जहाज और न जाने ऐसी कितनी चीजें है जिनका इस्तेमाल मुसलमानों को नहीं करना चाहिए क्योंकि इन सबका अविष्कार कभी न कभी अमेरिका में हुआ है। पर, मुझे यकीन है कि हर मुसलमान तकनीक को सिर्फ विज्ञान की कसौटी पर कसेगा, न कि पंधे की तरह धर्म की कसौटी पर।

यह सही है कि मुसलमानों का बहुमत अमेरिका के खिलाफ है और अमेरिका के हर कदम को वो शक की नजर से देखते हैं। मार्क्सवादी पार्टी को भी यह पता है और इसलिए वह इस खौफ को भुनाना चाहती है, पर मुसलमानों के लिए पूर्वाग्रह से ग्रस्त स्टिरीयोटाइप्ड छवि को तोड़ने का यही सही मौका है।