Saturday, December 5, 2009

लुधियाना को लगा मुंबई का रोग

एक मजदूर की पिटाई करते स्थानीय लोग और पुलिसवाले।

लुधियाना में हुई हिंसा का यह फोटो आज एक अखबार में छपा है। फोटो यह बताने के लिए काफी है कि 'दिल देने और दिल लेने में नंबर वन' पंजाबियों के दिलों में प्रवासी मजदूर समुदाय के प्रति सिर्फ २४ घंटे के भीतर पुलिस-प्रशासन ने कितनी नफरत भर दी और उन्हें एक-दूसरे की जान का दुश्मन बना दिया।
बात सिर्फ इतनी-सी थी कि बाहर से आए मजदूर, जो मुख्य रूप से बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश के हैं, आए दिन यहां बाइकर्स गैंग की लूट का शिकार हो रहे है। डरे-सहमे ये मजदूर अमूमन तो पुलिस के पास इसकी शिकायत करने की ही हिम्मत ही नहीं जुटा पाते थे, अगर गाहे-बगाहे थाने पहुंच भी जाते थे तो पुलिस उन्हें मार-पीट कर भगा देती थी। पराए प्रदेश में लंबे समय से असुरक्षा बोध के तले जी रहे मजदूर समुदाय का धैर्य बृहस्पतिवार को जवाब दे गया और वे सड़कों पर उतर आए। उनका मकसद नेक था, वे बस इतना चाहते थे कि पुलिस-प्रशासन उनके खून-पसीने की कमाई पर डाका डालने वालों को काबू में करे। पुलिस ने अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए इसे स्थानीय बनाम प्रवासी मजदूरों का रंग दे दिया। फिर क्या था जो पंजाबी मेहमाननवाजी के लिए पूरी दुनिया में मशहूर हैं, उनमें से कई के हाथों में दूसरे प्रदेश के लोगों को मारने के लिए हथियार थे। ऐसा करते वक्त उन्होंने यह नहीं सोचा कि क्या होगा पंजाब का। अगर मुंबई और महाराष्ट्र की नफरत यहां भी फैल गई तो लुधियाना की इंडस्ट्री और पंजाब की खेतीबारी की रीढ़ टूट जाएगी।

मजदूर वहां किस तरह से लूट का शिकार हो रहे हैं, इसे स्थानीय अखबार में छपी पटना के मजदूर राम कुमार की कहानी के जरिए भी समझा जा सकता है। काम की तलाश में पटना से लुधियाना आया था। उसने तीन साल लुधियाना की एक फैक्टरी में नौकरी की और इस दौरान वह चार बार लुटा। तीन बार वह शिकायत करने की हिम्मत नहीं कर सका। दो-तीन महीनों में वह जितना कमाता था, किसी न किसी रात लुटेरे घात लगाकर उससे लूट लेते। राम कुमार ने बेटी की शादी के लिए कुछ हज़ार रुपये जोड़े थे, वह भी लुटेरों ने छीन लिए। निराश होकर राम कुमार ने लुधियाना से मुंह मोड़ लिया और यहां दोबारा न आने की कसम खाकर पटना लौट गया कि बेटी की शादी हो या न हो, वह पटना में ही काम करेगा।

राम कुमार जैसे कई मजदूर जो रोजी-रोटी और परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए बिहार से पंजाब तक का सफर तय कर रहे थे, अब उनके कदम ठिठकने लगे हैं। कई तो पंजाब से अपने घर आने के बाद वहां लौटने की भी नहीं सोच रहे हैं। उनकी मनोदशा को जताने के लिए दुष्यंत कुमार की ये पक्तियां काफी हैं...
कहां तो तय था चराग़ां हर एक घर के लिए
कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहां दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहां से चले और उम्र भर के लिए

और अगर पलायन का सिलसिला चल पड़ा, तो यकीन मानिए पंजाबियत ही शर्मसार होगी।

Wednesday, July 8, 2009

900 साल पुराने शिव मंदिर में मुस्लिम पुजारी

कश्मीर घाटी में मौजूद 900 साल पुराने शिव मंदिर के पुजारी मुस्लिम हैं। संभवत: कश्मीर घाटी का यह ऐसा एकमात्र मंदिर है। बर्फीली लिडर नदी के किनारे स्थित इस मंदिर में आज भी घंटियों की आवाज सुनाई पड़ती है। कश्मीरी पंडितों के घाटी छोड़कर चले जाने के बाद पास के गांव के मोहम्मद अब्दुल्ला और गुलाम हसन ने मामालाक मंदिर का प्रभार संभाला और मंदिर के दरवाजों को बंद नहीं होने दिया। इसलिए मंदिर की घंटियों के बजने का सिलसिला आज भी जारी है।
गुलाम हसन ने बताया कि हम केवल मंदिर की देखरेख ही नहीं करते बल्कि रोज मंदिर में आरती भी करते हैं। हम सिर्फ मंदिर में स्थित तीन फुट के शिवलिंग की सुरक्षा का ही सिर्फ ध्यान नहीं रखते, बल्कि यह ख्याल भी रखते हैं कि कोई भी श्रद्धालु मंदिर से प्रसाद लिए बगैर न जाए।
राजा जय सूर्या द्वारा निर्मित इस मंदिर का महत्व एक समय ऐसा था कि कोई भी अमरनाथ यात्री इस मंदिर का दर्शन किए बिना आगे की यात्रा शुरू नहीं करता था। इस मंदिर का संचालन लंबे समय से पंडित राधा कृष्ण के नेतृत्व में स्थानीय कश्मीरी पंडित संघ किया करता था। लेकिन, 1989 में कश्मीर छोड़कर चले जाने से पूर्व पंडित जी यह दायित्व अपने मुस्लिम मित्र अब्दुल भट को देकर गए थे। पंडित जी ने अपने मित्र से रोजाना मंदिर के दरवाजे को खोलने का आग्रह किया था।
वादे के अनुरूप भट ने 2004 में हुए तबादले से पहले तक रोज मंदिर की देखरेख करना और उसका दरवाजा खोलना और बंद करना जारी रखा था। उसके बाद से यह उत्तरदायित्व मोहम्मद अब्दुल्ला और गुलाम हसन निभाते आ रहे हैं। इनका कहना है कि हमें भगवान शिव में आस्था है। हम केवल मंदिर की देखरेख ही नहीं करते, हमने मंदिर के अंदर मरम्मत का काम भी करवाया है ताकि मंदिर का कामकाज आतंकवादियों के धमकी के बावजूद सुचारु रूप से चलता रहे।
पिछले 4 साल में इस मंदिर के दर्शन के लिए आनेवाले हिंदू श्रद्धालुओं की संख्या में भी वृद्धि हुई है। इनमें वे लोग भी शामिल हैं जो यहां से छोड़कर चले गए थे और अब एक पर्यटक के रूप में इस मंदिर का दर्शन करने आया करते हैं।

सावरकर की प्रतिमा लगाने की इजाजत क्यों नहीं दे रही सरकार?

फ्रांस के मारसेल्स शहर के मेयर स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर की प्रतिमा अपने यहां लगाना चाहते हैं, पर केंद्र की यूपीए सरकार इसकी इजाजत देने में टालमटोल कर रही है। बीजेपी ने बुधवार को इस मुद्दे को लोकसभा में उठाया। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सरकार से पूछा है कि आखिर वह मारसेल्स शहर स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर की प्रतिमा लगाने के लिए फ्रांस सरकार को इजाजत देने में क्यों टालमटोल क्यों कर रही है। आडवाणी ने पूछा कि वीर सावरकर की प्रतिमा लगाने के बारे में भारत सरकार को जो पत्र लिखा है उस बारे में वस्तु स्थिति क्या है और इसपर सरकार का क्या रवैया है।
उन्होंने कहा कि राजनीतिक रूप से मतभेद हो सकते हैं लेकिन इसमें कोइ संदेह नहीं कि वीर सावरकर एक महान देशभक्त थे और उन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए संर्घष किया था।


इससे पहले बीजेपी के गोपीनाथ मुंडे ने भी शून्यकाल के दौरान यह मामला उठाते हुए कहा,'आज ही के दिन 1910 में वीर सावरकर को जब ब्रिटेन से भारत लाया जा रहा था, तो वे फ्रांस में जहाज से छलांग लगाकर भाग गए थे। उन्होंने अपनी इस कार्रवाई से ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी थी। बाद में उन्हें कालापानी की सजा हुई थी।'


उन्होंने कहा कि मारसेल्स शहर के मेयर ने सावरकर की प्रतिमा लगाने के लिए भारत सरकार को पत्र लिख कर मंजूरी मांगी है। मुंडे ने भी सरकार से इस बारे में वस्तुस्थिति से अवगत कराए जाने की मांग की, जिसपर संसदीय कार्य मंत्री वी. नारायणसामी ने कहा कि वह मुद्दे से संबंधित मंत्री को अवगत करा देंगे।

Monday, July 6, 2009

अनैतिक सोच इतनी हावी क्यों है?

एक कॉन्डम का विज्ञापन इन दिनों जोर-शोर से टेलीविजन पर दिखाया जा रहा है, जिसमें दो अपरिचित पात्र (युवक और युवती) मिलते हैं और युवती तुरंत युवक को यौन संबंध बनाने का निमंत्रण दे देती है। यह समझा जा सकता है कि कॉन्डम के विज्ञापन को यौन संबंध के जरिए दिखाने पर उसकी अपील सशक्त होती होगी। लेकिन बार-बार मन में सवाल उठता है कि विज्ञापन में यह संबंध मियां-बीवी के बीच भी दिखाया जा सकता था।ऐसे कई और विज्ञापन हैं, जो 'अनैतिक' बनने, दिखने या सोचने के लिए प्रेरित करते हैं। मुझे इसके पीछे अतृप्त इच्छा को भुनाने का गणित नजर आता है। दरअसल, संचार माध्यमों के गुरु अपने टारगेट (संभावित खरीदार) की कुंठा को भुनाना चाहते हैं। जाहिर आदमी के पास जो होता है, उसकी वह अनदेखी करता है और कभी ना पूरी होनेवाली कुंठा के पीछे परेशान रहता है।अनैतिक कर्म के इस संदर्भ को थोड़ा आगे बढ़ाते हैं और हाल में एलजीटीबी (गे, लेस्बियन, ट्रांससेक्सुअल और बाइसेक्सुअल) समुदाय के लिए आए फैसले से जोड़कर देखते हैं। बहुत सारे लोग कह रहे हैं कि सेक्स के मामले अलग तरह की अभिरुचि रखने वाले ये लोग अनैतिक हो सकते हैं, पर अपराधी नहीं हैं। मुझे यह मानने वालों से कोई परेशानी भी नहीं है लेकिन इन मुट्ठी भर 'अनैतिक' लोगों के लिए इतना हो-हल्ला क्यों? हाई कोर्ट के फैसले के बाद ऐसा लग रहा था जैसे ना जाने बतौर राष्ट्र हमने क्या हासिल कर लिया। ऐसा लग रहा था कि मीडिया कानूनी स्वीकार्यता के साथ-साथ उसी दिन इन लोगों को सामाजिक स्वीकार्यता भी दिला देगा। बार-बार मन में सवाल उठ रहा है कि आखिर अनैतिक सोच या दर्शन हमारे दिलो-दिमाग पर इतना हावी क्यों है।

Friday, June 12, 2009

अब अमेरिका देगा हमें सहिष्णु होने का प्रमाण पत्र

धार्मिक आजादी के मामले में दुनिया भर के देशों में हालात का आकलन करने के लिए बनाए गए अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग (यूएससीआईआरएफ) के जून-जुलाई में भारत के प्रस्तावित भारत दौरे को लेकर हिंदूवादी संगठनों की भौंहें तन गई हैं। दूसरी तरफ ईसाई संगठनों ने इसका स्वागत किया है। इन संगठनों का मानना है कि यह भारत की धार्मिक सार्वभौमिकता पर हमला है। आयोग की टीम के दौरे पर आधारित रिपोर्ट के आधार पर ही अमेरिका यह तय करेगा कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता के क्या हालात हैं।
इससे पहले केंद्र की किसी भी सरकार ने इस आयोग को भारत आने की इजाजत नहीं दी थी, लेकिन यूपीए की सरकार ने अपने पहले कार्यकाल के अंतिम दिनों में आयोग को भारत आने की इजाजत दे दी। कमिश्न के सदस्य जून या जुलाई में भारत के दौरे पर आ सकते हैं। गौरतलब है कि अमेरिका के इस आयोग के कमिश्ननरों की नियुक्ति अमेरिकी राष्ट्रपति करते हैं और दुनिया के देशों में मानवाधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता पर बनने वाली अमेरिकी नीति में इस आयोग की रिपोर्ट खासी मायने रखती है। यह आयोग हर साल रिपोर्ट जारी करता है और अमेरिकी विदेश विभाग इस आधार पर कार्रवाई करता है। इसी कमिशन की रिपोर्ट के आधार गुजरात के मुख्यमंत्री को 2005 में अमेरिका का वीज़ा नहीं मिला था।
2009 के लिए 1 मई को जारी रिपोर्ट में आयोग ने दुनिया के 13 देशों-जिनमें चीन, नॉर्थ कोरिया और पाकिस्तान शामिल हैं को कंट्रीज ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न (सीपीसी)की कैटगरी में रखा है। कमिशन के संविधान के मुताबिक सीपीसी की श्रेणी में उन देशों को रखा जाता है जहां किसी खास धर्म या मत के अनुयायियों (मानने वालों) को हिंसा का शिकार बनाया गया हो । पिछले 10 सालों में कमिशन की यह सबसे विस्तृत रिपोर्ट है।
विश्च हिंदू परिषद (वीएचपी)के केंद्रीय महामंत्री और मीडिया प्रभारी राजेंद्र पंकज ने कहा कि यूपीए सरकार द्वारा अमेरिकी कमिश्न को भारत आने का न्योता देना हमारी धार्मिक सार्वभौमिकता पर हमला है। उन्होंने केंद्र सरकार की नीयत पर सवाल उठाते हुए कहा कि धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी कमिशन को गुजरात, उड़ीसा और कर्नाटक में ही खास तौर पर क्या भेजा जा रहा है। उन्होंने कहा कि यह कमिशन जहां भी जाएगा उसका विरोध साइमन कमिशन की तर्ज पर किया जाएगा।
गौरतलब है कि इन तीनों राज्यों में संघ परिवार का मजबूत आधार है और उड़ीसा व कर्नाटक में हाल के दिनों धार्मिक हिंसाएं भी हुई हैं। सूत्रों के मुतिबाक इस मसले पर एक-दो दिन में वीएचपी के मुखिया अशोक सिंघल प्रेस कॉन्फ्रेस करके संगठन का रुख साफ करेंगे। अभी वह कोयम्बटूर में अपना इलाज करेंगे।
कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती ने भी धार्मिक मामलों पर अमेरिकी कमिशन के आधिकारिक दौरे का विरोध किया है। पीटीआई के मुताबिक शंकराचार्य ने शुक्रवार को मुंबई में कहा, 'यह हमारे आंतरिक धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप है। उन्होंने कहा कि इस कमिशन को भारत में आने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। हम अपने आंतरिक मामले में बाहरी हस्तक्षेप मंजूर नहीं कर सकते।'
यह खबर मैंने अपनी साइट नवभारत टाइम्स के लिए लिखी थी।

Thursday, June 11, 2009

VHP खोलेगी प्रॉडक्शन हाउस, वेब पोर्टल की भी तैयारी

विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) की हमेशा से शिकायत रही है कि हिंदू हित के मुद्दे अथवा उससे जुड़े घटनाक्रम पर मीडिया में संघ परिवार का पक्ष नहीं दिखाया जाता है। मीडिया द्वारा लगातार 'उपेक्षा' से आहत वीएचपी ने अब अपना पक्ष रखने के लिए प्रॉडक्शन हाउस खोलने का फैसला किया है। योजना है कि प्रॉडक्शन हाउस प्रोग्राम बनाकर चैनलों पर स्लॉट लेकर दिखाएगा। कुछ चैनलों से इसके लिए बातचीत भी चल रही है। अगर इसके अनुभव अच्छे रहे तो वीएचपी बाद में अपना चैनल लाने पर भी विचार कर सकती है। इसके अलावा वीएचपी एक पोर्टल भी लाने जा रही है, जिसमें 'हिंदू सरोकारों' से जुड़े सारे मुद्दे को तरजीह दी जाएगी।
वीएचपी के केंद्रीय महामंत्री और मीडिया प्रभारी राजेंद्र पंकज का इस बारे में कहना है, 'आज देश में हिंदू अवधारणा और आस्था निशाने पर है। हम हिंदू समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं और ऐसी परिस्थिति में हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठ सकते। इसलिए समाचार और विचार को सही तरीके प्रस्तुत करने व भारतीय विचारों को पोषित करने के लिए हम छोटी सी पहल कर रहे हैं।' उन्होंने कहा कि, 'आज देश में सेवा कार्यों का जिक्र आने पर केवल चर्च की चर्चा होती है जबकि संघ परिवार एक लाख से अधिक प्रकल्प चला रहा है। मीडिया संघ परिवार की नकारात्मक छवि बनाने में ही रुचि रखता है, जबकि हम कई सकारात्मक काम कर रहे हैं। प्रोग्रामिंग के जरिए इन्हीं सकारात्मक कार्यों को उभारा जाएगा।'
वीचएपी की इस मुहिम को परवान चढ़ाने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि के कई पत्रकार भी मदद कर रहे हैं। इसके साथ ही देश का एक अग्रणी मीडिया हाउस स्टूडियो वगैरह के निर्माण में मदद कर रहा है। इसी मीडिया हाउस के टेक्निकल हेड की देख-रेख में वीएचपी मुख्यालय के एक हिस्से को प्रॉडक्शन हाउस का रूप देने का काम चल रहा है। करीब आधा से अधिक काम पूरा भी हो चुका है। उम्मीद है कि दो महीने में स्टूडियो और पोस्ट प्रॉडक्शन के लिए एडिटिंग बे आदि बनकर तैयार हो जाएंगे।
वीएचपी से जूड़े सूत्र का कहना है कि अगस्त के अंत निर्माण कार्य पूरा होने के बाद प्रोग्राम तैयार करने का काम शुरू होगा। प्रोग्रामिंग दो स्तर की होगी। संघ परिवार और वीएचपी के सामाजिक क्षेत्र में काम चल रहे हैं। वीएचपी की योजना है कि संघ परिवार के सामाजिक कार्यों पर वह डॉक्यूमेंट्री बनाकर और धार्मिक चैनलों पर स्लॉट खरीदकर इसे दिखाया जाए। दूसरी योजना सम-सामयिक विषयों पर डॉक्यूमेंट्री और चैट शो जैसे प्रोग्राम तैयार करने की भी है। कोशिश यह रहेगी कि इन प्रोग्रामों का प्रसारण न्यूज चैनलों पर हो सके।
यह खबर मैंने अपनी साइट नवभारतटाइम्स.कॉम के लिए लिखी है, वहीं से साभार लिया है।

Monday, June 8, 2009

नहीं रहे हबीब तनवीर

मशहूर रंगकर्मी हबीब तनवीर का भोपाल में सोमवार को निधन हो गया है। वह 85 वर्ष के थे। थियेटर की दुनिया पर अमिट छाप छोड़ने वाले हबीब साहब कई हफ्तों से बीमार थे। उन्होंने जब आखिरी सांस ली तब उनकी बेटी नगीन उनके पास मौजूद थीं। पहले उन्हें सांस लेने में कुछ तकलीफ हो रही थी और इसके इलाज के लिए उन्हें अस्पताल ले जाया गया था। बाद में उनकी हालत बिगड़ गई और उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया था।
एक सितंबर 1923 को हबीब का जन्म रायपुर में हुआ था। उन्हें पद्मभूषण, पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। उनके प्रसिद्ध नाटक आगरा बाजार, मिट्टी की गाड़ी, चरनदास चोर और पोंगा पंडित हैं।
थियेटर का रिश्ता सभी कला माध्यमों के साथ है। यह तो सब जानते ही हैं पर इस बात को निभा नहीं पाते। हबीब साहब ने सहज रूप से न केवल इसको समझा बल्कि निभाया भी। नाटककार होने के साथ-साथ हबीब तनवीर निर्देशक, कवि और अभिनेता भी थे। उन्हें कविता लिखने का शौक था और 1945 में मुंबई पहुंचकर उन्होंने अपने शौक का भरपूर फायदा उठाया।
हबीब तनवीर ने ऑल इंडिया रेडियो, मुंबई के लिए काम भी किया और साथ ही हिंदी फिल्मों के लिए गाने भी लिखे। कुछ फिल्मों में उन्हें अभिनय का भी मौका मिला। इसी दौरान वह प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े और फिर इप्टा में भी शामिल हुए। बाद में हबीब दिल्ली आ गए और हिंदुस्तान थियेटर से जुड़े। 1954 में उन्होंने अपने मशहूर नाटक आगरा बाजार का मंचन किया।

Tuesday, April 28, 2009

पसंद-नापसंद का संकुचित नजरिया क्यों?


मेरे करीबी दोस्तों की राय है कि मैं बोलते समय भविष्य की 'आशंकाओं और संभावनाओं' को ध्यान में नहीं रखता। अक्सर वे इसका अहसास भी दिलाते हैं, लेकिन मैं हमेशा से कहता हूं कि इतने किंतु-परंतु के साथ मैं नहीं जी सकता। बेलौस और बेलाग मेरा अंदाज है, इसे छोड़ दूंगा तो मेरी शख्सीयत (चाहे जैसी भी है) ही खत्म हो जाएगी।मैं जो सोचता हूं अक्सर वो बोलता भी हूं, भविष्य में उसके उलट सोचने लगूंगा तो वो भी बोलूंगा।
दरअसल, सारी भूमिका जी-टॉक पर मेरे स्टेटस मेसेज को लेकर है। पिछले दिनों मैंने 'बीजेपी को वोट दीजिए' स्टेटस मेसेज लिख दिया था। इसे लेकर मेरे कुछ दोस्तों ने कहा पत्रकारिता के पेशे में रहते हुए इस तरह से खुलकर किसी एक पार्टी का पक्ष मत लो। कई दोस्तों ने सलाह दी कि इससे भविष्य में नुकसान हो सकता है। मैं काफी देर तक सोचता रहा कि क्या सही में कुछ गलत हो गया क्या? काफी सोच-विचार के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि व्यावसायिक जीवन को अपने निजी जीवन की पसंद-नापसंद पर हावी नहीं होने देना चाहिए। आखिर जो लोग मुझेकुछ करने से मना कर रहे हैं, वो भी तो अपनी राय ही मुझ पर थोपने की कोशिश कर रहे हैं।
आगे बढ़ने से पहले एक घटना का जिक्र करना चाहता हूं। एक अखबार में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अतिथि संपादक बनाकर लाने की बात हुई। जब सबकुछ तय हो गया तो अखबार के संपादकीय विभाग के एक सदस्य संपादक के पास गए और इस्तीफा सौंपते हुए रोने लगे। उनका तर्क था कि एक 'हत्यारे' की ऑफिस में मौजूदगी को वह बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। उस सज्जन को नंदीग्राम, सिंगूर या दिल्ली के नरसंहार से कोई समस्या नहीं है, पर गुजरात दंगों का जिक्र आते ही वह भावुक हो जाते हैं। शायद इसलिए कि गुजरात दंगे के शिकार हुए लोगों में ज्यादातर उनके समुदाय से थे।
इसी संदर्भ में एक दूसरी घटना का जिक्र करना भी जरूरी है। पिछले दिनों एक अखबार के दफ्तर में संपादकीय सहयोगियों के बीच वरुण गांधी के बीजेपी के साथ होने पर चर्चा चल रही थी। सभी लोग तर्क-कुतर्क कर रहे थे। एक सीनियर पत्रकार ने कहा कि बीजेपी के साथ कोई समझदार व्यक्ति हो ही नहीं सकता, इसलिए यह तो जगजाहिर है कि वरुण गांधी बेवकूफ है।
इन मामलों का जिक्र करने का मकसद कहीं से यह जताना नहीं है कि मुझे उनकी राय या समस्याओं से कोई समस्या है। मेरा मानना है कि पत्रकारिता के पेशे में रहते हुए भी आदमी की अपनी राय सार्वजनिक रूप से इजहार करने का पूरा हक है और इससे किसी भी तरह से पेशे के प्रति उसकी निष्ठा कम नहीं होती है। आखिर जो लोग बीजेपी को नापसंद करते हैं, वो भी तो अपनी पसंद-नापसंद ही जाहिर करते हैं। फिर तस्वीर का एक पहलू ही क्यों देखा जाए?

Sunday, March 29, 2009

पहले से ज्यादा बेरहम पाता हूं

बहुत कुछ खोया है मैंने

गांव से दिल्ली के सफर में

यह एहसास दिलाया मुझे

आज बचपन के एक दोस्त ने

अब मैं जब खुद को तलाशता हूं

आईना में अपना चेहरा

पहले से ज्यादा बेरहम पाता हूं।

(कुछ दिनों पहले ऑफिस में बातचीत के दौरान विवेक ने मुझे कविता लिखने के लिए प्रेरित किया था। कविता तो नहीं लिख पाया, अब यह तुकबंदी जैसी भी बन पड़ी है विवेक को समर्पित है।)

Thursday, February 26, 2009

सावधान! बॉस भी पढ़ते हैं आपके कॉमेंट

रोज़ की तरह आज भी मैं मसालों यानी चटपटी ख़बरों की खोज में ब्रितानी अखबार Dailymail की साइट पढ़ रहा था। मसालों की खोज की इच्छा एक सीरियस ख़बर को पढ़ते ही ख़त्म हो गई। चलिए, दो लाइन ख़बर के बारे में जिक्र कर देता हूं। पूर्वी ब्रिटेन के एसेक्स में किम्बर्ले स्वान ने तीन सप्ताह पहले ही नई नौकरी शुरू की थी। जाहिर है परिजनों की जिज्ञासा थी कि काम कैसा है। इसके जवाब में उन्होंने सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर लिख दिया था कि बोरिंग काम है। उनके बॉस ने नेट सर्फ करते हुए फेसबुक पर उनके कॉमेंट को पढ़ लिया और नौकरी से निकाल दिया।


ऐसे मामले पहले भी होते रहे होंगे, लेकिन मैं पहली बार नौकरी से निकाले जाने की इस नई तरकीब से रूबरू हुआ हूं। इस खबरे को पढ़ने के बाद से ही यह सवाल मुझे बार-बार परेशान कर रहा है कि क्या हम निजी बातचीतों में भी अपने काम की प्रकृति की निंदा नहीं कर सकते? अगर नहीं, तो क्या नौकरी और दास प्रथा (24 घंटे की गुलामी) में कोई अंतर है? नौकरी देने वाले संस्थान नियत समय के लिए हमारी कार्यक्षमता के दोहन के अधिकारी तो हैं, लेकिन हमारी सोच पर कैसे उनका पहरा हो सकता है।


दूसरी बात, हम सब जानते हैं कि अमेरिका और इंग्लैंड की हर व्यवस्था और अधिक क्रूर व परिष्कृत होकर भारतीय कॉरपरेट सेक्टर में लागू होती है। इस कथित मंदी के इस दौर में हमारे बॉसों ने भी हम सबके फेसबुक और ऑर्कुट के पन्नों पर पोस्टेड कॉमेंट को बहाना बनाकर हथियार भांजना शुरू कर दिया तो? यह सवाल सुनने में जरूर बेतुका लग सकता है, लेकिन खबर पढ़ने के बाद से मेरे मन में बार-बार यही सवाल उठ रहा है। इस सोच के पीछे नौकरी जाने का भय नहीं है, बल्कि अभिव्यक्ति की जो थोड़ी-बहुत आजादी है उसके भी गुम होने का डर है। मुझे तो उसकी आहट सुनाई दे रही है, हो सकता है आप लोग इसे खारिज कर दें। वैसे करने का पूरा हक भी है आपको, क्योंकि विचारों की यही आजादी तो हमें प्यारी है।