Thursday, August 28, 2008

कभी-कभी यूँ भी हमने अपने जी को बहलाया है

बचपन से सुनते आया हूं कि मुग़ल बादशाह जहांगीर जब पहली बार कश्मीर पहुंचे, तो यहां की वादियों को देखने के बाद उनके मुंह से निकला था,

'जन्नत कहीं है तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है।'

इस लाइन को सोच-सोच कर कश्मीर देखने की इच्छा भी मेरे उम्र के साथ बढ़ती ही गई। बाद में राजनीतिक और सामाजिक समझ विकसित (चाहे वह जैसी भी हो) होने के बाद कश्मीर को सिर्फ एक पर्यटक के नाते देखने की हसरत घटती गई, लेकिन कुछ चीज़ों को समझने के लिए वहां जाने की चाह और बढ़ गई।

कल ऑफिस में ऐसे ही कश्मीर के मसले पर बात चली तो मेरे एक साथी ने कहा कि मेरी बीवी तो जिद कर रही है कि एक बार वहां से घूमा लाओ, पता नहीं कश्मीर भारत का हिस्सा रहे ना रहे। हालांकि, साथी की पत्नी ने कुछ भी अटपटा नहीं कहा था लेकिन मैं इसे सोचकर ही बेचैन हो गया। यह बात और है कि मेरे या किसी भी दूसरे संवेदनशील इंसान के बेचैन होने से किसी को क्या फर्क पड़ने वाला है।

मैं घर आकर भी सोचता रहा कि क्या सचमुच वो दिन भी आ सकता है जब कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं रहेगा। नींद आखों से दूर थी और टीवी पर जम्मू के चिन्नौर में तीनों आतंकवादियों के मारे जाने की खबर आ रही थी। बंधकों के बारे में कुछ भी पता नहीं चल रहा था, तो मैं अपनी पुरानी डायरी पलटने लगा। एक पन्ने पर किसी फिल्म का एक गीत लिखा मिला, जिसे कहां से नोट किया था मुझे भी याद नहीं है।

मैं उसे पढ़ने लगा...
क्या छलेगा तू फूट यह घर है कबीर का
झगड़ा नहीं हो सकता है तुलसी से मीर का
फूल चमन का है चमन में ही खिलेगा
अब्दुल ही अपने देश पर मर मिटेगा
लुटने कभी आज़ादी की जागीर न देंगे
कश्मीर है भारत का कश्मीर न देंगे

इस गीत के खत्म होते-होते मेरे मन में भी जोश भर गया और सोचने लगा कि कश्मीर को लेकर हम सबका भय बेवजह है। मन में आया कि उस साथी को फोन करूं और कहूं कि अपनी पत्नी से कह दो कि कश्मीर भारत का है और भारत का ही रहेगा। ख़यालों में खोया हुआ मैं चैनल बदलते जा रहा था कि तभी एक समाचार चैनल पर महबूबा मुफ्ती को देखकर रुक गया। किसी पुराने प्रोग्राम का अंश था, जिसमें महबूबा कह रही थीं कि समस्या का हल न निकला तो कश्मीर कई टुकड़ों में बंट जाएगा और हम अपनी ज़रूरतों का सामान पाकिस्तान से मांगने के लिए मजबूर हो जाएंगे।

इस बयान को सुनने के बाद एक बार मेरा विश्वास फिर डगमगा गया लेकिन मैंने अपने मन को समझाया ऐसी नौबत नहीं आएगी। विचारों के भंवर में फंसा सोने के लिए निदा फाज़ली की किताब 'खोया हुआ सा कुछ' पढ़ने लगा। जैसे ही मैंने पन्ना पलटा तो सामने यह शे'र था...

कभी-कभी यूँ भी हमने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को खुद न समझे, औरों को समझाया है।