Monday, November 3, 2008

राज के समर्थन में हम ये कदम उठा सकते हैं

महाराष्ट्र में एमएनएस अध्यक्ष राज ठाकरे द्वारा उत्तर भारतीयों के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान के विरोध और समर्थन में चेन मेल का सिलसिला शुरू हो गया है। ऐसा ही एक मेल कहीं मिला तो टाप लिया। इसमें मजाकिया लहजे में राज की मुहिम को परवान चढ़ाने के टिप्स बताए गए हैं। अब आपलोग भी पढ़िए।


1। अगर हमारा बच्चा क्लास में सेकंड आ रहा है, तो हमें उसे समझाना चाहिए कि पढ़ाई में और ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं। फर्स्ट आने वाले साथी की जमकर पिटाई करो और स्कूल से बाहर फेंक दो।


2। सांसद सिर्फ दिल्ली के होने चाहिए, क्योंकि संसद दिल्ली में है।


3। इसी तरह प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और दूसरे नेता भी सिर्फ दिल्ली से होने चाहिए।


4। मुंबई में कोई हिंदी फिल्म नहीं बननी चाहिए। वहां सिर्फ मराठी फिल्में बनें।


5। हर राज्य की सीमा पर बस, ट्रेन और फ्लाइट को रोक देना चाहिए और उसके आगे इसको उसी राज्य के आदमी को ले जाने की इजाज़त होनी चाहिए।


6। विदेशों में या दूसरे राज्यों में काम कर रहे मराठियों को तुरंत वापस भेज देना चाहिए, क्योंकि वे भी तो स्थानीय लोगों की नौकरी छीन रहे हैं।


7। भगवान शिव, पार्वती और गणपति की पूजा महाराष्ट्र में नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वे उत्तर (हिमालय) के हैं।


8। ताजमहल को देखने की इजाजत केवल यूपी के लोगों को मिलनी चाहिए।


9। महाराष्ट्र के किसानों के लिए राहत पैकेज केंद्र सरकार की ओर से नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि यह पैसा सारे भारत के लोगों के टैक्स से आता है।


10। फिर तो हमें कश्मीरी आतंकवादियों का समर्थन करना चाहिए, आखिर वे भी तो अपने राज्य और समुदाय की 'भलाई' के लिए निर्दोषों का खून बहा रहे हैं।


11। सारी मल्टीनैशनल कंपनियों को महाराष्ट्र से बाहर कर देना चाहिए, आखिर उन्हें मराठियों से कैसे कमाने दिया जा सकता है। इसके बाद महाराष्ट्र माइक्रोसॉफ्ट, एमएच पेप्सी और एमएच मारुति जैसी कंपनियों की शुरुआत होनी चाहिए।


12। सारे मराठियों को सेलफोन, ई-मेल, टीवी, विदेशी फिल्मों और नाटकों का बहिष्कार कर देना चाहिए। जेम्स बॉन्ड को भी मराठी बोलना चाहिए।


13। भूख से मरने या दस गुणा महंगा खाना खाने के लिए तैयार रहना चाहिए, लेकिन दूसरे राज्यों से अनाज नहीं मंगाना चाहिए।


14। राज्य में कोई भी ऐसी कंपनी खोलने की मंजूरी नहीं देनी चाहिए, जिनकी मशीनें बाहर से आती हों।


15 । लोकल ट्रेनों का भी बहिष्कार कर देना चाहिए, क्योंकि ट्रेनें मराठी मानुष नहीं बनाते और रेल मंत्री भी बिहार के हैं।


16 । हम सही मायनों में मराठी तभी होंगे जब हमारे बच्चे जन्म से लेकर मृत्यु तक महाराष्ट्र से बाहर कदम न रखें।


Sunday, October 26, 2008

जामिया नगर का एनकाउंटर और बीबीसी का सच

दिल्ली में बटला हाउस में हुए एनकाउंटर पर उंगली कई खेमों से उठ रही है और इसकी जांच भी चल रही है। लेकिन कुछ मीडिया संगठन और बुद्धिजीवी जांच खत्म होने से पहले ही फैसला सुना देना चाहते हैं। बीबीसी भी इनमें से एक है। जिस दिन एनकाउंटर हुआ उसी दिन बीबीसी ने बिना किसी तथ्य के ही यह स्थापित करने की कोशिश की कि एनकाउंटर फर्जी है। (पढ़ें: जामिया नगर का सच)

उसके बाद से भी बीबीसी हिंदी की साइट पर पत्रकारिता की तमाम मर्यादाओं की धज्जियां उड़ाते हुए यह प्रयास जारी है। यह और बात है कि किसी भी खबर में कोई तथ्य नहीं होता है सिर्फ माकूल लोगों के विचारों के जरिए अपनी थोथी बात को सिद्ध करने की कोशिश होती है। सवाल यह है कि बीबीसी, जो अपनी प्रमाणिकता के लिए जानी जाती रही है, को इतनी जल्दी क्यों है इस मुठभेड़ को फर्जी साबित करने की।

दुनिया जानती है कि लंदन धमाकों के बाद वहां ब्राजील के एक नगारिक चार्ल्स डी मैनेजेज को पुलिस ने सिर्फ इसलिए मार दिया क्योंकि वह तेजी से चल रहे थे। उनसे उनकी पहचान के बारे में पूछा तक नहीं गया था। तब बीबीसी ने इसकी रिपोर्टिंग हू-ब-हू पुलिसिया बयान के आधार पर की थी। (पढ़ें: गलत आदमी मारा गया)

लेकिन जामिया नगर एनकाउंटर के बाद बीबीसी ने ऐसा संयम दिखाना या पत्रकारिता के मानदंडों का पालन करना उचित नहीं समझा। हर मामले में कुछ लोग पक्ष में और कुछ विरोध में मिल जाएंगे। यह तो देखने वाले के नजरिए पर निर्भर करता है। लेकिन यह तो कतई बीबीसी की प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं है कि बिना किसी तथ्य के सिर्फ विचारों के आधार पर एक पक्ष को स्थापित करने की कोशिश की जाए। (पढ़ें: जीने का अधिकार कितना सुरक्षित?)

दुनिया और पत्रकारिता, दोनों की स्थापित मान्यता है कि अगर विचार से कोई चीज स्थापित करनी हो तो सभी पक्षों को बराबर का मौका दिया जाए। यह देखकर दुख होता है कि बीबीसी (या उसके पत्रकार) इस मामले में इस सामान्य सिद्धांत का पालन नहीं कर रहे हैं और दूसरे पक्ष को मौका दिए बगैर अपनी बात को सिद्ध करने में लगे हैं।

Friday, October 24, 2008

फिर हिंदू कैसे आतंकवादी हो गए?

ज्यादा दिन नहीं हुआ है जब मीडिया और बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका कह रहा था कि आतंकवाद को इस्लाम से जोड़कर न देखा जाए। आतंकवादियों को कोई मजहब नहीं होता है। वैसे यहां तक तो मैं भी मीडिया और बुद्धिजीवियों की राय से सहमत हूं। लेकिन ये सारे तर्क और विवेकपूर्ण बातें धरी रह गईं जब मालेगांव और साबरकांठा विस्फोट में हिंदू आरोपी बनाए गए। कल तक चीख-चीखकर संयमी और विवेकी बनने की नसीहत देने वाले लोग अब अपना उपदेश ही भूल गए हैं। अब उसी मीडिया में हेडिंग लगा रही है- Millitant Hindu activists held for malegaon blasts. कुछ और सुर्खियां हैं - Hindu group behind Malegaon, Modasa Ramzan blast, Hindu terror link to malegaon blast.


इन धमाकों की साजिश करनेवाले अगर हिंदू हैं, तो दूसरे मामलों की तरह ही कानून अपना काम करेगा और सजा देगा। इसमें 'दूसरे संप्रदाय' के विपरीत हिंदुओं को कोई आपत्ति भी नहीं होगी। आरोपियों का नाम सामने आते ही 'हिंदू हितों के पैरोकारों' ने आगे आकर सराहनीय बयान दिया है। इसके बावजूद मीडिया और बुद्धिजीवियों के उस बड़े तबके का आतंकवाद व धर्म के संबंध पर सुर बदल गए हैं, पर सवाल उठता है क्यों? शायद इसके पीछे भी वही मानसिकता है कि बहुसंख्यकों की भावनाओं से जब चाहो खिलवाड़ कर लो, परवाह कौन करता है।

Friday, October 10, 2008

बिन फेरे हम तेरे तो ठीक है, लेकिन...

हिंदू धर्म में विवाह को 16 संस्कारों में से एक माना गया है और मनुस्मृति में विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं- ब्रह्म विवाह, दैव विवाह, अर्श विवाह, प्रजापत्य विवाह, गंधर्व विवाह, असुर विवाह, राक्षस विवाह और पैशाच विवाह। अब भौतिकवाद और भोगवाद से प्रेरित महानगरीय जीवनशैली में इसमें एक प्रकार और जुड़ गया है- लिव इन रिलेशनशिप। अगर महाराष्ट्र सरकार के प्रस्ताव को केंद्र सरकार ने मान लिया और भारतीय दंड संहित की धारा 125 में संशोधन कर दिया तो इस पर कानूनी मुहर भी लग जाएगी। लेकिन इसे लेकर मेरे मन में कुछ सवाल हैं, जिसके आधार नैतिक भी हैं और कानूनी भी।
जहां तक मेरी समझ है लिव इन रिलेशनशिप की पूरी अवधारणा ही शारीरिक संबंधों पर आधारित है, जबकि भारतीय संस्कृति में पति और पत्नी के रिश्ते में शारीरिक संबंध से अधिक आत्मिक संबंध का महत्व होता है। आज के महानगरीय जीवन में लोग लिव इन में इसलिए रहना चाहते हैं क्योंकि वे वैवाहिक जीवन का सुख तो लेना चाहते हैं लेकिन उसकी जिम्मेदारियों को निभाना नहीं चाहते यानी कि शादी के साइड इफेक्ट्स से बचना चाहते हैं।

जैसे कि अगर जोड़े में से किसी एक का मां-बाप या वह खुद बीमार है तो दूसरा उनके देखभाल के दायित्व को निभाए यह जरूरी नहीं होता, लेकिन शादी के संबंध में आप चाहे या न चाहें इस नैतिक दायित्व से बच नहीं सकते। अब ऐसे में सवाल उठता है कि जब कोई महिला पत्नी के कर्तव्य से बचना चाहती है तो उसे पत्नी के अधिकार क्यों दिए जाएं? हमारा संविधान भी कहता है कि मौलिक कर्तव्यों का निर्वाह किए बिना मौलिक अधिकारों का कोई मतलब नहीं है।

लिव इन रिलेशनशिप की वजह से परिवार नामक संस्था भी कमजोर होगी। जरा सोचिए जब पति-पत्नी नहीं होंगे तो साली-जीजा, सास-ससूर, जीजा-साला जैसे कितने रिश्तों का नामोनिशान मिट जाएगा और यह सुखद एहसास भी खत्म हो जाएगा। मुझे लगता है कि लिव इन में रहते ही वही लोग हैं जो स्थायी रिश्ता नहीं बनाना चाहते हैं। फिर इसे कानून बनाकर रिश्ते का नाम क्यों दिया जाए? क्या इससे जोड़े की स्वच्छंदता नहीं खत्म हो जाएगी?

ये तो कुछ नैतिक पहलू थे, लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता देने से कानूनी पेचदगियां भी बढ़ेंगी। मान लीजिए अगर कोई शादीशुदा मर्द महाराष्ट्र सरकार के प्रस्ताव के मुताबिक 'पर्याप्त समय' तक किसी महिला के साथ लिव इन में रहता है तो क्या उसके ऊपर दो शादियों का केस हो सकेगा? लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ और यह कानून केवल बिना शादी के साथ रह रही महिला की आर्थिक सुरक्षा के लिए है तो इसके दूरगामी परिणाम की कल्पना करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

Thursday, October 2, 2008

क्या शिवलिंग और बिकनी पहनीं महिला में कोई अंतर नहीं है?

इंडोनेशिया में हाल ही में लागू किए गए अश्लीलता विरोधी कानून (बैन बिकनी बिल) का विरोध देश के कई हिस्सों में इन दिनों जोरों पर है। खासकर बाली में, जहां 93 प्रतिशत आबादी हिंदुओं की है। बाली में इस कानून का विरोध होने की कई वजहें हैं। यह कि सूबा देश का सबसे चर्चित पर्यटन स्थल है, जाहिर है जो लोग बाहर से आते हैं वह समुद्र किनारे बुर्का पहनकर तो नहीं घूमेंगे! स्थानीय लोगों को डर है कि कट्टरपंथी मुस्लिमों को खुश करने के लिए बनाए गए इस कानून के डर से कहीं पर्यटक यहां आने से ही ना डरने लगें। और अगर ऐसा हुआ तो निश्चित रूप से उनकी रोजी-रोटी पर असर पड़ेगा।

इस कानून का इससे भी खतरनाक पहलू यह है कि इससे हिंदुओं की कई धार्मिक गतिविधियों पर रोक लग सकती है। हिंदुओं को लग रहा है कि नए कानून से उनका धर्म खतरे में पड़ जाएगा। इस कानून के अनुसार हिंदू धर्म के लोग भगवान शिव की पूजा खुलेआम नहीं कर पाएंगे, क्योंकि कुछ लोगों के अनुसार शिवलिंग की पूजा नग्नता का सामाजिक स्तर पर प्रदर्शन है। इसलिए उस पर पाबंदी लगाना जरूरी है। यही नहीं, इस कानून के लागू होने से 'ओम ज्योतिर्लिन्गाय नम:' जैसे संस्कृत के मंत्र भी अश्लीलता की श्रेणी में आ सकते हैं।

इंडोनेशिया में यह शंका जताई जा रही है कि अश्लीलता पर रोक की आड़ में इस्लाम के शरिया कानूनों को देश की गैर मुस्लिम आबादी पर थोपने का प्रयास किया जा रहा है। कई बार पहले भी ऐसे कट्टरपंथी लोगों ने इस्लाम की रक्षा के नाम पर वहां के तमाम होटलों और नाइट क्लबों पर धावा बोला था और इस तरह लोगों में दहशत फैलाने की कोशिश की थी।

इस मसले पर नवभारत टाइम्स में गुरुवार को लेख छपा है, 'बाली में यह कैसा तूफान'

Friday, September 12, 2008

अंग्रेजी के मारे बाप बेचारे

मेरे कुछ दोस्तों की शादी हो गई है और एक-दो दोस्त के बच्चे स्कूल जाने लायक भी हो गए हैं। मेरे दो दोस्तों ने अपने-अपने बेटे के लिए कुछ स्कूलों का फॉर्म भरा है। एक दोस्त, जो पत्रकार हैं, की अंग्रेजी थोड़ी अच्छी है लेकिन दूसरे की अंग्रेजी अच्छी नहीं है (ऐसा मेरा मानना है)।


गलाकाट प्रतिद्वंद्विता के इस दौर की त्रासदी यह है कि अगर आप साधन संपन्न नहीं हैं तो अपने बच्चों को किसी लायक बनाने की सोच रखने के लिए भी शर्मिंदा होना पड़ सकता है। पर समस्या यह है कि सिर्फ आपके साधन-संपन्न होने से ही समस्या नहीं सुलझ जाती। स्कूल हर स्तर पर यह जांच लेना चाहता है कि आप में कहीं से कुछ भी भदेसपन (यहां मौलिकता समझें) न बचा हो।


इसलिए अंग्रेजी माध्यम के सारे नामी स्कूल अदालतों के आदेशों को ताक पर रखकर नर्सरी में दाखिला चाहने वाले बच्चों के साथ-साथ मां-बाप का भी इंटरव्यू ले रहे हैं। मां-बापों को तो लिखित परीक्षा भी देनी पड़ रही है। बकायदा प्रश्नपत्र होता है और 45 मिनट से लेकर एक घंटे के भीतर सात से दस सवालों के जवाब देने होते हैं। बच्चा और मां-बाप की परीक्षा के आधार पर दाखिले के लिए सफल छात्रों की सूची तैयार की जाती है। अभी तक जिन स्कूलों के रिजल्ट निकले हैं उनमें जिस दोस्त की अंग्रेजी थोड़ी अच्छी है उसके बेटे का नाम तो है लेकिन दूसरे के बेटे का नाम गायब है।

मैं यहां हिंदी बनाम अंग्रेजी के बहस में नहीं पड़ना चाहता, इस पर फिर कभी बात करूंगा। लेकिन एक सवाल जरूर परेशान किए हुए है। क्या किसी के बच्चे को सिर्फ इसलिए मनचाहे स्कूल में दाखिला नहीं मिल सकता क्योंकि उसकी अंग्रेजी दूसरे प्रतिद्वंद्वी बापों से थोड़ी कमतर है? क्या यह प्रतिभा के हनन का मामला नहीं है? इसका जो दूसरा पहलू है वह तो इससे भी अधिक स्याह है। अगर किसी बाप की खराब अंग्रेजी की वजह से उसके बच्चे को मनचाहे स्कूल में दाखिला नहीं मिलता है तो क्या वह अपराधबोध से जीते जी नहीं मर जाएगा?

Thursday, August 28, 2008

कभी-कभी यूँ भी हमने अपने जी को बहलाया है

बचपन से सुनते आया हूं कि मुग़ल बादशाह जहांगीर जब पहली बार कश्मीर पहुंचे, तो यहां की वादियों को देखने के बाद उनके मुंह से निकला था,

'जन्नत कहीं है तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है।'

इस लाइन को सोच-सोच कर कश्मीर देखने की इच्छा भी मेरे उम्र के साथ बढ़ती ही गई। बाद में राजनीतिक और सामाजिक समझ विकसित (चाहे वह जैसी भी हो) होने के बाद कश्मीर को सिर्फ एक पर्यटक के नाते देखने की हसरत घटती गई, लेकिन कुछ चीज़ों को समझने के लिए वहां जाने की चाह और बढ़ गई।

कल ऑफिस में ऐसे ही कश्मीर के मसले पर बात चली तो मेरे एक साथी ने कहा कि मेरी बीवी तो जिद कर रही है कि एक बार वहां से घूमा लाओ, पता नहीं कश्मीर भारत का हिस्सा रहे ना रहे। हालांकि, साथी की पत्नी ने कुछ भी अटपटा नहीं कहा था लेकिन मैं इसे सोचकर ही बेचैन हो गया। यह बात और है कि मेरे या किसी भी दूसरे संवेदनशील इंसान के बेचैन होने से किसी को क्या फर्क पड़ने वाला है।

मैं घर आकर भी सोचता रहा कि क्या सचमुच वो दिन भी आ सकता है जब कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं रहेगा। नींद आखों से दूर थी और टीवी पर जम्मू के चिन्नौर में तीनों आतंकवादियों के मारे जाने की खबर आ रही थी। बंधकों के बारे में कुछ भी पता नहीं चल रहा था, तो मैं अपनी पुरानी डायरी पलटने लगा। एक पन्ने पर किसी फिल्म का एक गीत लिखा मिला, जिसे कहां से नोट किया था मुझे भी याद नहीं है।

मैं उसे पढ़ने लगा...
क्या छलेगा तू फूट यह घर है कबीर का
झगड़ा नहीं हो सकता है तुलसी से मीर का
फूल चमन का है चमन में ही खिलेगा
अब्दुल ही अपने देश पर मर मिटेगा
लुटने कभी आज़ादी की जागीर न देंगे
कश्मीर है भारत का कश्मीर न देंगे

इस गीत के खत्म होते-होते मेरे मन में भी जोश भर गया और सोचने लगा कि कश्मीर को लेकर हम सबका भय बेवजह है। मन में आया कि उस साथी को फोन करूं और कहूं कि अपनी पत्नी से कह दो कि कश्मीर भारत का है और भारत का ही रहेगा। ख़यालों में खोया हुआ मैं चैनल बदलते जा रहा था कि तभी एक समाचार चैनल पर महबूबा मुफ्ती को देखकर रुक गया। किसी पुराने प्रोग्राम का अंश था, जिसमें महबूबा कह रही थीं कि समस्या का हल न निकला तो कश्मीर कई टुकड़ों में बंट जाएगा और हम अपनी ज़रूरतों का सामान पाकिस्तान से मांगने के लिए मजबूर हो जाएंगे।

इस बयान को सुनने के बाद एक बार मेरा विश्वास फिर डगमगा गया लेकिन मैंने अपने मन को समझाया ऐसी नौबत नहीं आएगी। विचारों के भंवर में फंसा सोने के लिए निदा फाज़ली की किताब 'खोया हुआ सा कुछ' पढ़ने लगा। जैसे ही मैंने पन्ना पलटा तो सामने यह शे'र था...

कभी-कभी यूँ भी हमने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को खुद न समझे, औरों को समझाया है।

Monday, July 28, 2008

सोमनाथ दादा, यह मौक़ापरस्ती नहीं तो क्या है!

अपनी पार्टी की ओर लाख समझाने के बावजूद सोमनाथ चटर्जी के स्पीकर पद न छोड़ने को आजकल काफ़ी महिमामंडित किया जा रहा है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि भारतीय लोकतंत्र और संसदीय परंपराओं की रक्षा के लिए उन्होंने पार्टी से बर्ख़ास्तगी का सामना करके बहुत बड़ी शहादत दी है और गर्त में जा रही देश की राजनीति को एक नई दिशा दी है। लेकिन मैं इससे कतई सहमत नहीं हूं। मुझे लगता है कि जिस तरह से कोई भी आम बूढ़ा आदमी सांसारिक भोग-विलास के मोह में ज़िंदगी के अंतिम पड़ाव पर ज़िद करने लगता है, उसी तरह से सोमनाथ दादा भी महान और ख़ास बनने के हठ में मौक़ापरस्त बन गए।

जब यह तर्क दिया जाता है कि स्पीकर किसी पार्टी का नहीं होता है, तब यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसका आशय सिर्फ उसके दायित्व के निर्वाह तक से ही होता है। यानी कि इसका मतलब यह होता है कि स्पीकर को सदन के भीतर या बाहर अपने संसदीय कर्तव्यों का निर्वाह करते समय दलगत राजनीति से ऊपर उठकर फैसला करना चाहिए। आखिर सोमनाथ चटर्जी को स्पीकर बनाने का फ़ैसला भी उनकी पार्टी ने ही किया था, तो फिर उन्हें स्पीकर का पद छोड़ने का आदेश देने का अधिकार पार्टी के पास क्यों नहीं होना चाहिए? यह तो सरासर मौक़ापरस्ती है कि पार्टी का जो फ़ैसला आपको माकूल लगे उसे आप माने और जो मनमाफिक न लगे उसे ठुकरा दें। इस लिहाज़ से तो क्रॉस वोटिंग करने वालों सांसदों ने भी कुछ ग़लत नहीं किया है। सोमनाथ दादा ने भी अपनी पार्टी का फ़ैसला न मानते हुए परोक्ष रूप से विश्वास मत पर सरकार का साथ दिया और बाग़ी सांसदों ने भी अपनी-अपनी पार्टियों के साथ विश्वासघात करते हुए सरकार को बचाया।

परिवार हो या पार्टी, हर सदस्य को अपनी राय जाहिर करने का हक़ होता है लेकिन एक बार सामूहिक फ़ैसला होने के बाद जो उसके ख़िलाफ़ जाता है बाग़ी कहलाता है। इस लिहाज़ से सोमनाथ भी मामूली बाग़ी सांसद हैं और अगर वो महान हैं, तो फिर सरकार के पक्ष में वोट करने वाले बाक़ी 14 सांसद भी उनसे कतई कम महान नहीं हैं। आखिर उन्होंने भी तो अपनी 'अंतरात्मा' की आवाज़ पर वोट किया है। सरकार से समर्थन वापस लेने के सीपीएम के फ़ैसले पर हम सवाल उठा सकते हैं, लेकिन पार्टी के सदस्य होने के नाते इस फ़ैसला को मानना हर सदस्य का कर्तव्य है। अगर सोमनाथ अपनी पार्टी के फ़ैसले से सहमत नहीं थे, तो पार्टी छोड़ देते या फिर संसद की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे देते। यकीन मानिए, इससे ज़रूर उनका नैतिक कद ऊंचा हो जाता।

आख़िर जब उन्होंने पार्टी का सदस्य रहते हुए आलाकमान के फ़ैसले को नकारा तो कार्रवाई भी उनके ख़िलाफ़ पार्टी के संविधान के मुताबिक ही होगी ना! और पार्टी के संविधान के मुताबिक ही पोलित ब्यूरो ने उन्हें बर्ख़ास्त करने का फ़ैसला किया तो फिर पार्टी कैसे ग़लत हो गई! इसलिए मुझे लगता है कि सोमनाथ के फ़ैसले को महिमामंडित करने के बजाए हमें तर्कों की कसौटी पर कसना चाहिए। यह स्पीकर पद की गरिमा से जुड़ा मसला कतई नहीं है, बल्कि परिवार के किसी सदस्य का परिवार से भी बड़ा दिखने की चाह भर का मामला है।

Tuesday, July 22, 2008

फिर टाटा-अंबानी की सरकार क्यों न बने?

सरकार के विश्वास मत जीतने के बाद ऑफिस से घर पहुंच कर सोने की तैयारी कर रहा था, तभी मेरे एक दोस्त का फोन आया। विचारधारा के स्तर पर हम दोनों विपरीत धुरी पर हैं। फिर भी दोनों ही इस बात पर सहमत थे कि सरकार जीत गई लेकिन इस सब में कहीं न कहीं संसद, लोकतंत्र और जनता के विश्वास की हार हुई है। उससे बात होने के बाद मैं काफी देर तक सोचता रहा कि अभी तो विश्वास मत जीतने के लिए यह सब हुआ है, कहीं भविष्य में सरकारें इसी तरह तो नहीं बनेंगी!

पता नहीं मैं क्यों इतना आहत था कि देर रात तक इस पर सोचता रहा। जबकि भारतीय लोकतंत्र के लिए यह कोई नई बात तो थी ही नहीं। केंद्र में पर्दे के पीछे से और राज्यों में खुल्लमखुल्ला यह खेल तो वर्षों से खेला जाता रहा है। बस, इस बार तो खेल ने राष्ट्रीय स्तर पर अपना असली चेहरा भर दिखाया है। इस बारे में हमारे सीनियर दिलीप मंडल की राय है कि क्यों न भारत में भी 'दलाल संस्कृति' को कानूनी जामा पहना दिया जाए। जब उन्होंने यह बात कही थी तब मैं उनसे पूरी तरह सहमत नहीं था लेकिन अब मुझे भी लगता है कि कथित रूप से मू्ल्यों पर आधारित लोकतंत्र को अगर इसी रास्ते पर जाना है, तो इसमें बुराई ही क्या है।

मैं तो अब दिलीप जी से भी आगे की सोचने लगा हूं। मुझे लगता है कि आईपीएल के लिए जिस तरह से कॉरपोरेट घरानों ने क्रिकेटरों की बोली लगाई थी वैसी ही कुछ व्यवस्था राजनीति में भी होनी चाहिए। वैसे भी हमारे 'माननीय' बिकाऊ ही हैं तो ऑफिसयली बिकें। इससे दो फायदे होंगे एक तो उन्हें कीमत अच्छी मिलेगी और जनता को भी पता रहेगा कि फलां सांसद का मार्केट रेट क्या है। इस तरह बीजेपी या कांग्रेस के बजाय देश की जनता को टाटा या अंबानी के सरकार राज में रहने का मौका मिल जाएगा। ज़ाहिर है जब टाटा और अंबानी इतना इन्वेस्ट करके सरकार बनाएंगे तो रिजल्ट भी चाहेंगे और फिर एक बार जीतने के बाद संसद व जनता को चेहरा न दिखाने वाले सांसदों की छुट्टी भी करेंगे। जैसा कि विजय माल्य अपनी आईपीएल की आधी टीम बदलने के मूड में हैं।

मैं जानता हूं कि यह विचार थोड़ा नहीं, बहुत अतिवादी है। लेकिन ये सबकुछ अगर हो ही रहा है तो क्यों न सबके सामने हो। फिर इससे यह भी होगा कि सांसद की जितनी बोली लगाई जाएगी, उसका एक हिस्सा इनकम टैक्स के रूप में देश के खजाने में भी जाएगा। अभी तो सांसद अपनी कीमत का सारा माल पचा जाते हैं और देश पर ब्लैक मनी का बोझ कुछ और बढ़ जाता है। सच मानिए, जब भारतीय प्रजातंत्र में आईपीएल की तर्ज पर सांसदों की बोली लगेगी तो खेल मंगलवार से भी ज़्यादा मज़ेदार होगा और उसका टीआरपी आईपीएल के फाइनल से भी अधिक होगा।

Thursday, July 3, 2008

जंग है तो जंग का मंज़र भी होना चाहिए

जैसा कि हर बंद में होता है वीएचपी के भारत बंद में भी हुआ। चार लोगों की जानें चली गईं और हिंसा के बाद देश के कुछ थाना क्षेत्रों में कर्फ्य लगाना पड़ा। अमरनाथ श्राइन बोर्ड से ज़मीन वापस लिए जाने के फैसले का संघ परिवार द्वारा भारत भर में व्यापक विरोध के औचित्य पर तमाम तरह के सवाल उठाए जा सकते हैं और उठाए भी जाने चाहिए। क्या इन मौतों और लोगों को हुई असुविधाओं की ज़िम्मेदारी वीएचपी लेगी?

स्वस्थ प्रजातंत्र की यही पहचान है कि हम हर बात पर खूब और खुलकर बहस करें। पर, किसी (समुदाया या संगठन) को कठघरे में खड़ा करने से पहले मंशा भी स्वस्थ होनी चाहिए। अगर कश्मीर में ज़मीन दिए जाने का अल्पसंख्यक समुदाय के लोग विरोध करते हैं तो कहा जाता है कि वहां के लोग अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं। और, जब जम्मू व देश के दूसरे हिस्सों के लोग ज़मीन वापस लिए जाने का विरोध करते हैं तो कहा जाता है कि दंगाई और सांप्रदायिक तत्वों की गुंडागर्दी है। दो दिन पहले एक न्यूज़ चैनल पर कश्मीर के एक अलगाववादी नेता सज्जाद लोन कह रहे थे कि कश्मीर में जो कुछ हो रहा है वह वहाँ के आवाम की आवाज़ है और जम्मू में तो बस मुट्ठी भर सांप्रदायिक लोग सड़कों पर हैं।

अगर मुसलमान प्रदर्शन करें तो उसे अभिव्यक्ति की आज़ादी करार दिया जाता है और अगर हिंदू प्रदर्शन करें तो उस पर सांप्रदायिकता का लेबल चस्पा कर दिया जाता है। वाह रे भारत की धर्मनिरपेक्षता! क्या किसी ने कभी यह पूछा कि मुसलमानों को धार्मिक आधार पर हज़ारों सुविधाएं देने के बावजूद हिंदुओं को थोड़ी सी ज़मीन (वह भी साल में सिर्फ दो महीने के लिए) देने पर इतना विवाद क्यों?

जिस देश में हज़ के लिए हज़ारों करोड़ों रुपये की सरकारी सहायता दी जाती है, वहां हिंदुओं के तीर्थस्थल के लिए ज़मीन दिए जाने का विरोध घाटी में मुस्लिम संप्रदाय की मानसिकता को दर्शाता है। भारत में धर्मनिरपेक्षता की यही परिभाषा है कि हिंदुओं की अस्मिता को जी भर कुचला जाए और मुसलमानों के गैर-वाज़िब मांगों को भी हर हाल में पूरा किया जाए।

दरअसल, भारत के संदर्भ में मुस्लिम रूढ़िवादिता के खिलाफ कुछ न कहना ही धर्मनिरपेक्षता है। तस्लीमा नसरीन के मामले में भी यह साफ दिखा। और, अब तो परमाणु करार का विरोध करने के लिए भी यह तर्क दिया जा रहा है कि मुसलमान अमेरिका से भारत की दोस्ती नहीं चाहते। अगर इसी तरह हम चुप बैठे रहे तो एक बार फिर हमें अमरनाथ और वैष्णो देवी की यात्रा के लिए जज़िया कर देना होगा। जाहिर है-

जंग है तो जंग का मंज़र भी होना चाहिए

सिर्फ़ नेज़े हाथ में हैं सर भी होना चाहिए।

Wednesday, June 25, 2008

सेकुलर मार्क्सवादियों का असली चेहरा

बात शुरू करूं इससे पहले सीपीएम पोलित ब्यूरो के सदस्य एम. के. पंधे के बयान पर गौर फरमाइए। उनका कहना है कि देश के ज्यादातर मुसलमान भारत-अमेरिका परमाणु करार के विरोधी हैं, इसलिए सपा नेता मुलायम सिंह यादव को इसका समर्थन करने से पहले दो बार सोच लेना चाहिए। एम. के. पंधे ने मुलायम को चेतावनी दी है कि अगर करार के मसले पर उन्होंने यूपीए सरकार का समर्थन किया तो उन्हें अपने भरोसेमंद वोट बैंक को खोना पड़ेगा।

क्या पंधे का यह बयान एक राष्ट्रीय मुद्दे पर सार्वजनिक बहस और चर्चा को सांप्रदायिक और धार्मिक जामा पहनाने की कोशिश नहीं है? और, क्या सिर्फ वोट बैंक की वजह से ही वाम दल इस करार का विरोध कर रहे हैं? इन सवालों के जवाब सबके पास हैं, लेकिन इस पर अपनी भड़ास कभी और निकालूंगा। अभी करार, मुस्लिमों के सरोकार और सेकुलर पार्टियों की सांप्रदायिकता की बात।

पंधे भारतीय राजनीति में वैसी पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो धर्म को अफीम मानती है। ऐसे में पंधे का बयान यह बताने के लिए काफी है कि वामपंथी नेताओं की नैतिकता और बुद्धि उनकी विचारधारा की तरह ही लगातार रसातल में जा रही है। भारतीय राजनीति में ऐसे कई उदाहरण हैं जब पार्टियों ने मौका पड़ने पर जाति और धर्म से जुड़े भावनात्मक मुद्दे को तूल देकर सियासी रोटियां सेकी हैं। लेकिन किसी धर्मनिरपेक्ष देश की एक मुख्य पार्टी द्वारा राष्ट्रीय महत्व के करार का धार्मिक आधार पर विरोध करने का यह शायद पहला उदाहरण होगा।

अगर पंधे के हिसाब से सोचा जाए तो फिर बल्ब, टेलीफोन, टेलीविजन, कार, हवाई जहाज और न जाने ऐसी कितनी चीजें है जिनका इस्तेमाल मुसलमानों को नहीं करना चाहिए क्योंकि इन सबका अविष्कार कभी न कभी अमेरिका में हुआ है। पर, मुझे यकीन है कि हर मुसलमान तकनीक को सिर्फ विज्ञान की कसौटी पर कसेगा, न कि पंधे की तरह धर्म की कसौटी पर।

यह सही है कि मुसलमानों का बहुमत अमेरिका के खिलाफ है और अमेरिका के हर कदम को वो शक की नजर से देखते हैं। मार्क्सवादी पार्टी को भी यह पता है और इसलिए वह इस खौफ को भुनाना चाहती है, पर मुसलमानों के लिए पूर्वाग्रह से ग्रस्त स्टिरीयोटाइप्ड छवि को तोड़ने का यही सही मौका है।

Thursday, May 29, 2008

बाल ठाकरे को एक बिहारी की चिट्ठी

बालासाहब जी,
पाए लागूं।
हम बिहारी राजनीति को लेकर काफी इमोशनल होते हैं और मैं भी कुछ अलग नहीं हूं। इसलिए जिस उम्र में बड़े-बड़े शहरों के बच्चे फिल्म और कार्टून से मनोरंजन करते रहे होंगे , मैं नेताओं के बयानों और उनके मायने ढूंढ़ने में उलझा रहता था क्योंकि मुझे लगता था कि नेता ही देश का भविष्य हैं।
राजनीति के साथ प्रेम परवान चढ़ने के दौर में आप कब मेरे नायक बने , मुझे खुद भी नहीं पता चला। अबोध मन में आपके लिए इतनी इज़्ज़त क्यों थी , आज की तारीख में ठीक-ठीक बताना मुश्किल है। लेकिन शायद इसकी वजह यह रही होगी कि जिस दौर में मैं राजनीति समझ रहा था उस दौर में आप मुझे देश और हिंदू समाज के नायक लगते थे। जैसे-जैसे राजनीति , देश , समाज और व्यवस्था की समझ बढ़ती गई , आप लगातार नायक से खलनायक के पाले में जाते दिखाई दिए।

पहले आप देश को हिंदू और मुसलमानों में बांटने की राजनीति कर रहे थे, फिर आप हिंदुओं को भी मराठी-गैरमराठी में बांटने लगे और मुझे लगा कि न तो आपको हिंदुओं से कोई लेना-देना है न ही हिंदुस्तानियों से। आज मुझे समझ में आ रहा है कि आपको सिर्फ अपने वोट बैंक से मतलब है और उसके लिए आप किसी को भी विलेन बता सकते हैं - चाहे वह आपका भतीजा ही क्यों न हो ! आज जब मैं पहले की तरह बच्चा नहीं रहा तो मैं यह भी सोचता हूं कि कोई ऐसा व्यक्ति किसी राष्ट्र या समाज का नायक कैसे हो सकता है , जो उसको कई हिस्सों में तोड़ने की सियासत कर रहा हो। हालांकि , यह पहली बार नहीं है जब आप और आपकी पार्टी ने भौगोलिक आधार पर देश के किसी खास हिस्से के लोगों को निशाना बनाया हो।

लेकिन इस बार बात दूर तलक निकल पड़ी है। आप मानते हैं कि एक बिहारी , सौ बीमारी। वैसे यह विचार आपके अकेले के नहीं हैं। बिहारी शब्द देश के ज्यादातर हिस्सों में हिकारत का भाव दिखाने का प्रतीक बन गया है। हालांकि , आज सिर्फ वही बिहारी नहीं हैं जिनकी जड़ें बिहार में हैं। दिल्ली और मुंबई में मजदूर , कारीगर , मूंगफलीवाला , गुब्बारेवाला और वे सब बिहारी हैं जिनकी समाज में कोई ' हैसियत ' नहीं है। आपका और आपके भतीजे राज ठाकरे का आरोप है कि बिहार और पूर्वी यूपी के लोग मुंबई में रहकर मराठी संस्कृति पर हमला बोल रहे हैं। ठाकरे जी , आपने कभी गणेश चतुर्थी पर मुंबई के पूजा मंडपों में जमा होनेवाली भीड़ में शामिल यूपी और बिहार के लोगों की गिनती की होती तो आपको पता चलता कि आपका आरोप कितना गलत हैं। जैसे कलकत्ता में रहनेवाला हिंदीभाषी दुर्गा पूजा में सारे परिवार के साथ पंडाल-पंडाल घूमते हैं , वैसे ही हम भी जहां रहते हैं , वहां के तीज-त्योहारों से खुद को कैसे अलग कर सकते हैं ! लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि हम अपनी संस्कृति से भी उतना ही प्यार करते हैं और हम उसे भुलाना भी नहीं चाहते। इसीलिए जब छठ पूजा होती है तो हम उसे भी पूरी निष्ठा के साथ मनाते हैं। आपको और आपके भतीजे को इस पर एतराज है जो कि मुझे समझ में नहीं आता।

ठाकरे जी , अगर आप अमेरिका चले जाएं तो क्या आप वहां गणेश चतुर्थी के दिन उत्सव नहीं मनाएंगे ? अगर आप और आपकी ही तरह सारे मराठी महाराष्ट्र से बाहर भारत में और विदेश में कहीं भी अपने पर्व और त्योहारों को धूमधाम से मना सकते हैं ( और मनाना भी चाहिए ) तो बाकी लोगों पर पाबंदी क्यों ? अगर आपके ही तर्क मान लिए जाएं तो फिर मराठियों को भी राज्य से बाहर गणेश चतुर्थी नहीं मनानी चाहिए। क्या ठाकरे जी , आप भी कैसी बात करते हैं , वह भी उस देश में जिसका मिजाज़ यही है कि आप छठ पूजा में शरीक हों और हम गणपति बप्पा मोरया के नारे लगाएं। हम ईद में शरीक हों और हमारे मुस्लिम भाई दीवाली में। यह ऐसा देश है जहां हिंदू घरों में भी क्रिसमस पर केक खाया जाता है।

बालासाहब जी , हम मानते हैं कि हमारे नेता करप्ट हैं। लेकिन करप्ट नेता कहां नहीं हैं ? अगर अन्ना हज़ारे से पूछें तो शायद वह एक लंबी लिस्ट निकाल देंगे महाराष्ट्र के ऐसे नेताओं की। आप भी कांग्रेसी नेताओं पर भ्रष्ट होने के आरोप लगाते रहते हैं। वैसे भी आप राजनीति में लंबे समय से है , आपको क्या बताना कि इस हमाम में सभी नंगे हैं। रही बात जहालत की और समस्याओं की तो गरीबी और अन्याय अगर बिहार में है तो क्या महाराष्ट्र में नहीं ? आत्महत्या कहां के किसान कर रहे हैं ? क्या उनकी आत्महत्याओं के लिए भी बिहारी ही दोषी हैं ? मैं बिहार की वकालत नहीं कर रहा। बिहार में समस्याएं हैं। वे सुलझेंगी या नहीं या कितनी जल्दी या देर से सुलझेंगी , यह कहना मुश्किल है। पूंजी निवेश , उद्योग , बाज़ार और रोज़गार के मौके मिलेंगे तो यही बिहार चमचमा जाएगा और सारे पूर्वाग्रह खत्म हो जाएंगे। जब देश के दूसरे हिस्सों के लोग मोटी तनख्वाह पर कॉरपोरेट नौकरी के लिए बिहार जाएंगे तो सच मानिए , बिहार और बिहारी उतने बुरे नहीं लगेंगे।
आपका
प्रभाष झा
(यह मैंने अपनी साइट के लिए मार्च के पहले सप्ताह में लिखा था)