Thursday, July 3, 2008

जंग है तो जंग का मंज़र भी होना चाहिए

जैसा कि हर बंद में होता है वीएचपी के भारत बंद में भी हुआ। चार लोगों की जानें चली गईं और हिंसा के बाद देश के कुछ थाना क्षेत्रों में कर्फ्य लगाना पड़ा। अमरनाथ श्राइन बोर्ड से ज़मीन वापस लिए जाने के फैसले का संघ परिवार द्वारा भारत भर में व्यापक विरोध के औचित्य पर तमाम तरह के सवाल उठाए जा सकते हैं और उठाए भी जाने चाहिए। क्या इन मौतों और लोगों को हुई असुविधाओं की ज़िम्मेदारी वीएचपी लेगी?

स्वस्थ प्रजातंत्र की यही पहचान है कि हम हर बात पर खूब और खुलकर बहस करें। पर, किसी (समुदाया या संगठन) को कठघरे में खड़ा करने से पहले मंशा भी स्वस्थ होनी चाहिए। अगर कश्मीर में ज़मीन दिए जाने का अल्पसंख्यक समुदाय के लोग विरोध करते हैं तो कहा जाता है कि वहां के लोग अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं। और, जब जम्मू व देश के दूसरे हिस्सों के लोग ज़मीन वापस लिए जाने का विरोध करते हैं तो कहा जाता है कि दंगाई और सांप्रदायिक तत्वों की गुंडागर्दी है। दो दिन पहले एक न्यूज़ चैनल पर कश्मीर के एक अलगाववादी नेता सज्जाद लोन कह रहे थे कि कश्मीर में जो कुछ हो रहा है वह वहाँ के आवाम की आवाज़ है और जम्मू में तो बस मुट्ठी भर सांप्रदायिक लोग सड़कों पर हैं।

अगर मुसलमान प्रदर्शन करें तो उसे अभिव्यक्ति की आज़ादी करार दिया जाता है और अगर हिंदू प्रदर्शन करें तो उस पर सांप्रदायिकता का लेबल चस्पा कर दिया जाता है। वाह रे भारत की धर्मनिरपेक्षता! क्या किसी ने कभी यह पूछा कि मुसलमानों को धार्मिक आधार पर हज़ारों सुविधाएं देने के बावजूद हिंदुओं को थोड़ी सी ज़मीन (वह भी साल में सिर्फ दो महीने के लिए) देने पर इतना विवाद क्यों?

जिस देश में हज़ के लिए हज़ारों करोड़ों रुपये की सरकारी सहायता दी जाती है, वहां हिंदुओं के तीर्थस्थल के लिए ज़मीन दिए जाने का विरोध घाटी में मुस्लिम संप्रदाय की मानसिकता को दर्शाता है। भारत में धर्मनिरपेक्षता की यही परिभाषा है कि हिंदुओं की अस्मिता को जी भर कुचला जाए और मुसलमानों के गैर-वाज़िब मांगों को भी हर हाल में पूरा किया जाए।

दरअसल, भारत के संदर्भ में मुस्लिम रूढ़िवादिता के खिलाफ कुछ न कहना ही धर्मनिरपेक्षता है। तस्लीमा नसरीन के मामले में भी यह साफ दिखा। और, अब तो परमाणु करार का विरोध करने के लिए भी यह तर्क दिया जा रहा है कि मुसलमान अमेरिका से भारत की दोस्ती नहीं चाहते। अगर इसी तरह हम चुप बैठे रहे तो एक बार फिर हमें अमरनाथ और वैष्णो देवी की यात्रा के लिए जज़िया कर देना होगा। जाहिर है-

जंग है तो जंग का मंज़र भी होना चाहिए

सिर्फ़ नेज़े हाथ में हैं सर भी होना चाहिए।

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