
ऐसे मामले पहले भी होते रहे होंगे, लेकिन मैं पहली बार नौकरी से निकाले जाने की इस नई तरकीब से रूबरू हुआ हूं। इस खबरे को पढ़ने के बाद से ही यह सवाल मुझे बार-बार परेशान कर रहा है कि क्या हम निजी बातचीतों में भी अपने काम की प्रकृति की निंदा नहीं कर सकते? अगर नहीं, तो क्या नौकरी और दास प्रथा (24 घंटे की गुलामी) में कोई अंतर है? नौकरी देने वाले संस्थान नियत समय के लिए हमारी कार्यक्षमता के दोहन के अधिकारी तो हैं, लेकिन हमारी सोच पर कैसे उनका पहरा हो सकता है।
दूसरी बात, हम सब जानते हैं कि अमेरिका और इंग्लैंड की हर व्यवस्था और अधिक क्रूर व परिष्कृत होकर भारतीय कॉरपरेट सेक्टर में लागू होती है। इस कथित मंदी के इस दौर में हमारे बॉसों ने भी हम सबके फेसबुक और ऑर्कुट के पन्नों पर पोस्टेड कॉमेंट को बहाना बनाकर हथियार भांजना शुरू कर दिया तो? यह सवाल सुनने में जरूर बेतुका लग सकता है, लेकिन खबर पढ़ने के बाद से मेरे मन में बार-बार यही सवाल उठ रहा है। इस सोच के पीछे नौकरी जाने का भय नहीं है, बल्कि अभिव्यक्ति की जो थोड़ी-बहुत आजादी है उसके भी गुम होने का डर है। मुझे तो उसकी आहट सुनाई दे रही है, हो सकता है आप लोग इसे खारिज कर दें। वैसे करने का पूरा हक भी है आपको, क्योंकि विचारों की यही आजादी तो हमें प्यारी है।