Tuesday, April 28, 2009

पसंद-नापसंद का संकुचित नजरिया क्यों?


मेरे करीबी दोस्तों की राय है कि मैं बोलते समय भविष्य की 'आशंकाओं और संभावनाओं' को ध्यान में नहीं रखता। अक्सर वे इसका अहसास भी दिलाते हैं, लेकिन मैं हमेशा से कहता हूं कि इतने किंतु-परंतु के साथ मैं नहीं जी सकता। बेलौस और बेलाग मेरा अंदाज है, इसे छोड़ दूंगा तो मेरी शख्सीयत (चाहे जैसी भी है) ही खत्म हो जाएगी।मैं जो सोचता हूं अक्सर वो बोलता भी हूं, भविष्य में उसके उलट सोचने लगूंगा तो वो भी बोलूंगा।
दरअसल, सारी भूमिका जी-टॉक पर मेरे स्टेटस मेसेज को लेकर है। पिछले दिनों मैंने 'बीजेपी को वोट दीजिए' स्टेटस मेसेज लिख दिया था। इसे लेकर मेरे कुछ दोस्तों ने कहा पत्रकारिता के पेशे में रहते हुए इस तरह से खुलकर किसी एक पार्टी का पक्ष मत लो। कई दोस्तों ने सलाह दी कि इससे भविष्य में नुकसान हो सकता है। मैं काफी देर तक सोचता रहा कि क्या सही में कुछ गलत हो गया क्या? काफी सोच-विचार के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि व्यावसायिक जीवन को अपने निजी जीवन की पसंद-नापसंद पर हावी नहीं होने देना चाहिए। आखिर जो लोग मुझेकुछ करने से मना कर रहे हैं, वो भी तो अपनी राय ही मुझ पर थोपने की कोशिश कर रहे हैं।
आगे बढ़ने से पहले एक घटना का जिक्र करना चाहता हूं। एक अखबार में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अतिथि संपादक बनाकर लाने की बात हुई। जब सबकुछ तय हो गया तो अखबार के संपादकीय विभाग के एक सदस्य संपादक के पास गए और इस्तीफा सौंपते हुए रोने लगे। उनका तर्क था कि एक 'हत्यारे' की ऑफिस में मौजूदगी को वह बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। उस सज्जन को नंदीग्राम, सिंगूर या दिल्ली के नरसंहार से कोई समस्या नहीं है, पर गुजरात दंगों का जिक्र आते ही वह भावुक हो जाते हैं। शायद इसलिए कि गुजरात दंगे के शिकार हुए लोगों में ज्यादातर उनके समुदाय से थे।
इसी संदर्भ में एक दूसरी घटना का जिक्र करना भी जरूरी है। पिछले दिनों एक अखबार के दफ्तर में संपादकीय सहयोगियों के बीच वरुण गांधी के बीजेपी के साथ होने पर चर्चा चल रही थी। सभी लोग तर्क-कुतर्क कर रहे थे। एक सीनियर पत्रकार ने कहा कि बीजेपी के साथ कोई समझदार व्यक्ति हो ही नहीं सकता, इसलिए यह तो जगजाहिर है कि वरुण गांधी बेवकूफ है।
इन मामलों का जिक्र करने का मकसद कहीं से यह जताना नहीं है कि मुझे उनकी राय या समस्याओं से कोई समस्या है। मेरा मानना है कि पत्रकारिता के पेशे में रहते हुए भी आदमी की अपनी राय सार्वजनिक रूप से इजहार करने का पूरा हक है और इससे किसी भी तरह से पेशे के प्रति उसकी निष्ठा कम नहीं होती है। आखिर जो लोग बीजेपी को नापसंद करते हैं, वो भी तो अपनी पसंद-नापसंद ही जाहिर करते हैं। फिर तस्वीर का एक पहलू ही क्यों देखा जाए?

2 comments:

ऋषभ कृष्ण सक्सेना said...

लिख मारे झाजी! सही बात कही बात आपने. अरे डर डरकर नौकरी करना भी क्या. दुनिया माने या ना माने, हमें पता है की हम कितने समझदार हैं और हमारी समझ जो कहती है, हम भी वही कहेंगे. किसी के पेट में दर्द है, तो गोली लेकर चुप बैठ जाए. दूसरी बात ये कि क्या समझ का ठेका एक ख़ास विचारधारा के म्लेच्छों ने ही ले रखा है. जिन्हें भी ऐसा लगता है, उनकी समझ पर क्या कहें, हंसी ही आती है....

Anonymous said...

Maan Gaye, aapne mere andar jo baitha hua dar hai uska pura varnan kiya hua hai. Asha karta hoon ki, bhavishaya mein main apne vicharon ko vayakt karne mein koi karsar nahin rahne doonga.

Manish Mani Upadhyay