दिल्ली में बटला हाउस में हुए एनकाउंटर पर उंगली कई खेमों से उठ रही है और इसकी जांच भी चल रही है। लेकिन कुछ मीडिया संगठन और बुद्धिजीवी जांच खत्म होने से पहले ही फैसला सुना देना चाहते हैं। बीबीसी भी इनमें से एक है। जिस दिन एनकाउंटर हुआ उसी दिन बीबीसी ने बिना किसी तथ्य के ही यह स्थापित करने की कोशिश की कि एनकाउंटर फर्जी है। (पढ़ें: जामिया नगर का सच)
उसके बाद से भी बीबीसी हिंदी की साइट पर पत्रकारिता की तमाम मर्यादाओं की धज्जियां उड़ाते हुए यह प्रयास जारी है। यह और बात है कि किसी भी खबर में कोई तथ्य नहीं होता है सिर्फ माकूल लोगों के विचारों के जरिए अपनी थोथी बात को सिद्ध करने की कोशिश होती है। सवाल यह है कि बीबीसी, जो अपनी प्रमाणिकता के लिए जानी जाती रही है, को इतनी जल्दी क्यों है इस मुठभेड़ को फर्जी साबित करने की।
दुनिया जानती है कि लंदन धमाकों के बाद वहां ब्राजील के एक नगारिक चार्ल्स डी मैनेजेज को पुलिस ने सिर्फ इसलिए मार दिया क्योंकि वह तेजी से चल रहे थे। उनसे उनकी पहचान के बारे में पूछा तक नहीं गया था। तब बीबीसी ने इसकी रिपोर्टिंग हू-ब-हू पुलिसिया बयान के आधार पर की थी। (पढ़ें: गलत आदमी मारा गया)
लेकिन जामिया नगर एनकाउंटर के बाद बीबीसी ने ऐसा संयम दिखाना या पत्रकारिता के मानदंडों का पालन करना उचित नहीं समझा। हर मामले में कुछ लोग पक्ष में और कुछ विरोध में मिल जाएंगे। यह तो देखने वाले के नजरिए पर निर्भर करता है। लेकिन यह तो कतई बीबीसी की प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं है कि बिना किसी तथ्य के सिर्फ विचारों के आधार पर एक पक्ष को स्थापित करने की कोशिश की जाए। (पढ़ें: जीने का अधिकार कितना सुरक्षित?)
दुनिया और पत्रकारिता, दोनों की स्थापित मान्यता है कि अगर विचार से कोई चीज स्थापित करनी हो तो सभी पक्षों को बराबर का मौका दिया जाए। यह देखकर दुख होता है कि बीबीसी (या उसके पत्रकार) इस मामले में इस सामान्य सिद्धांत का पालन नहीं कर रहे हैं और दूसरे पक्ष को मौका दिए बगैर अपनी बात को सिद्ध करने में लगे हैं।
Sunday, October 26, 2008
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8 comments:
बेहतर हो, अदालतें बंद कर दी जाएँ, और बीबीसी जैसे मीडिया चेनल्स को ही अदालत का रूप दे दिया जाय. बिचारों के आधार पर फैसले हों. तथ्यों को गैरकानूनी धोषित कर दिया जाय.
पत्रकारिता निश्चित ही हदें पार करती दिखाई देती हैं..विशेषकर हमारे देश मैं...आज के दिन मैं वो तबका जिसके राष्ट्रीय सरोकार सबसे कम दिखाई देते हैं वो पत्रकार ही हैं ....मोटे पैकेजेज के चक्कर मैं वो सब छापा जा रहा हैं जो फायदेमंद हैं और आज के दिन मैं येन केन प्रकारेण अल्पसंख्यकवाद को बढावा दैना ही इनका शगल बन गया हैं...खूब तालियां बजती हैं...please remove word varification
एनकाउंटर पर उंगलियाँ उठी हैं तो जाँच होने दीजिए सच सब के सामने आ जाएगा। उंगलियाँ उठने मात्र से यह नहीं कहा जा सकता कि कोई उस एनकाउंटर को फर्जी साबित करने पर तुला है। जितने भी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट पुलिस अफसर हैं वे सभी करोडों के आसामी हैं। अण्डरवर्ड के लोगों के इशारों पर अण्डरवर्ड के लोगों के एनकाउंटरों ने उन्हें अमीर बनाया है। संदेह अगर हो तो उस के निवारण में क्या आपत्ति हो सकती है? इस देश में तो गर्भवती सती सीता को एक संदेह के आधार पर वन जाना पड़ा था।
दीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ।
दीवाली आप के और आप के परिवार के लिए सर्वांग समृद्धि लाए।
मीडिया अब बेशर्मी से वकिल और अदालत बन गया है.
kisi aur desh men bahusankhyakon ke saath aisa ghranit majaak kiya hota to samajh men aa jaata, dikkat hinduon ki hai ki wo vyapari ban gaye hain.
सवाल केवल बीबीसी का ही नहीं है, दरअसल आज की पूरी मीडिया व्यक्तिगत रुचियों, सनक और मान्यताओं पर चल रही है। हम अक्सर मीडिया की चर्चा ऐसे करते हैं जैसे पूरी मीडिया कोई एक इकाई या संस्था है। जब सच यह है कि मीडिया समाज पर सबसे ज्यादा असर डालने वाला एक ऐसा अपरिभाषित, असंगठित क्षेत्र है, जिसकी अलग-अलग संस्थाओं की जवाबदेही केवल और केवल अपने उस मालिक के प्रति है, जिसका उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना और अपना राजनीतिक रसूख बढ़ाना है।
जी हां, अभी तक जांच ही चल रही है जामिया एन्काउंटर की। पर कुछ बुद्धिजीवियों ने अपना फैसला सुना दिया कि मारे गए सभी 'आतंकवादी' थे। ठीक उसी तरह जैसे बीबीसी में कोशिश की गई यह जताने की कि एन्काउंटर फर्जी था।
मेरा खयाल से सवाल ये नहीं है कि किसने क्या 'फैसला' सुनाया। सवाल ये है कि किसी 'बुद्धिजीवी' को क्यों जरूरत नहीं पड़ी घटना के सभी पहलुओं पर सोचने की। पत्रकारिता में आने के बाद जो तटस्थता आनी चाहिए वह तो खैर ख्वाब की ही बात रह गई है, सबसे चिंताजनक तो ये है कि अब लोग मीडिया का सहारा लेकर अपना एजंडा चलाते हैं। किसी का कुछ एजंडा तो किसी का कुछ। पर क्या किसी को भी फिक्र है हाशिए पर खड़े उस शख्स (और यह शख्स हिंदू नहीं मुसलमान नहीं है ईसाई नहीं है, इसकी कोई पहचान नहीं है)की जो छपे हुए शब्दों को सच मानता है. और पत्रकारों का सम्मान करता है क्योंकि वे उसकी 'आवाज़' बुलंद करते हैं।
आपने तथ्यो के साथ अपनी बात कहने की कोशिश की है. उदाहरण भी सटीक है. पहले नेताओ ने सरकारी संस्थाओ को बिगाडा, अब? वही उसपर उंगली भी उठा रहे है. जैसे राजनीति व्यक्तिगत स्वार्थ पर आधारित हो गइ है वैसे ही मीडिया भी...देश और समाज उनके लिये कोइ मायने नही रखता...
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