Monday, July 28, 2008

सोमनाथ दादा, यह मौक़ापरस्ती नहीं तो क्या है!

अपनी पार्टी की ओर लाख समझाने के बावजूद सोमनाथ चटर्जी के स्पीकर पद न छोड़ने को आजकल काफ़ी महिमामंडित किया जा रहा है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि भारतीय लोकतंत्र और संसदीय परंपराओं की रक्षा के लिए उन्होंने पार्टी से बर्ख़ास्तगी का सामना करके बहुत बड़ी शहादत दी है और गर्त में जा रही देश की राजनीति को एक नई दिशा दी है। लेकिन मैं इससे कतई सहमत नहीं हूं। मुझे लगता है कि जिस तरह से कोई भी आम बूढ़ा आदमी सांसारिक भोग-विलास के मोह में ज़िंदगी के अंतिम पड़ाव पर ज़िद करने लगता है, उसी तरह से सोमनाथ दादा भी महान और ख़ास बनने के हठ में मौक़ापरस्त बन गए।

जब यह तर्क दिया जाता है कि स्पीकर किसी पार्टी का नहीं होता है, तब यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसका आशय सिर्फ उसके दायित्व के निर्वाह तक से ही होता है। यानी कि इसका मतलब यह होता है कि स्पीकर को सदन के भीतर या बाहर अपने संसदीय कर्तव्यों का निर्वाह करते समय दलगत राजनीति से ऊपर उठकर फैसला करना चाहिए। आखिर सोमनाथ चटर्जी को स्पीकर बनाने का फ़ैसला भी उनकी पार्टी ने ही किया था, तो फिर उन्हें स्पीकर का पद छोड़ने का आदेश देने का अधिकार पार्टी के पास क्यों नहीं होना चाहिए? यह तो सरासर मौक़ापरस्ती है कि पार्टी का जो फ़ैसला आपको माकूल लगे उसे आप माने और जो मनमाफिक न लगे उसे ठुकरा दें। इस लिहाज़ से तो क्रॉस वोटिंग करने वालों सांसदों ने भी कुछ ग़लत नहीं किया है। सोमनाथ दादा ने भी अपनी पार्टी का फ़ैसला न मानते हुए परोक्ष रूप से विश्वास मत पर सरकार का साथ दिया और बाग़ी सांसदों ने भी अपनी-अपनी पार्टियों के साथ विश्वासघात करते हुए सरकार को बचाया।

परिवार हो या पार्टी, हर सदस्य को अपनी राय जाहिर करने का हक़ होता है लेकिन एक बार सामूहिक फ़ैसला होने के बाद जो उसके ख़िलाफ़ जाता है बाग़ी कहलाता है। इस लिहाज़ से सोमनाथ भी मामूली बाग़ी सांसद हैं और अगर वो महान हैं, तो फिर सरकार के पक्ष में वोट करने वाले बाक़ी 14 सांसद भी उनसे कतई कम महान नहीं हैं। आखिर उन्होंने भी तो अपनी 'अंतरात्मा' की आवाज़ पर वोट किया है। सरकार से समर्थन वापस लेने के सीपीएम के फ़ैसले पर हम सवाल उठा सकते हैं, लेकिन पार्टी के सदस्य होने के नाते इस फ़ैसला को मानना हर सदस्य का कर्तव्य है। अगर सोमनाथ अपनी पार्टी के फ़ैसले से सहमत नहीं थे, तो पार्टी छोड़ देते या फिर संसद की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे देते। यकीन मानिए, इससे ज़रूर उनका नैतिक कद ऊंचा हो जाता।

आख़िर जब उन्होंने पार्टी का सदस्य रहते हुए आलाकमान के फ़ैसले को नकारा तो कार्रवाई भी उनके ख़िलाफ़ पार्टी के संविधान के मुताबिक ही होगी ना! और पार्टी के संविधान के मुताबिक ही पोलित ब्यूरो ने उन्हें बर्ख़ास्त करने का फ़ैसला किया तो फिर पार्टी कैसे ग़लत हो गई! इसलिए मुझे लगता है कि सोमनाथ के फ़ैसले को महिमामंडित करने के बजाए हमें तर्कों की कसौटी पर कसना चाहिए। यह स्पीकर पद की गरिमा से जुड़ा मसला कतई नहीं है, बल्कि परिवार के किसी सदस्य का परिवार से भी बड़ा दिखने की चाह भर का मामला है।

1 comment:

Anonymous said...

प्रभाष जी....आपका आलेख अच्छा लगा...लेकिन आपके मत से सहमत नहीं हुआ जा सकता है...हालाकि मुख्य बिपक्षी भाजपा भी यही कहती है कि सोमनाथ जी गलत हैं...पर मेरा मानना ये है कि कुछ पदों को पार्टी के चंगुल से मुक्त रखा जाना चाहिए...स्पीकर जैसा संबैधानिक पद भी उनमे से एक है...आप सोचे...रास्ट्रपति का चयन भी पार्टी विशेष ही करती है...तो क्या उसको भी पार्टी के कहने पे इस्तीफा दे देना चाहिए???या जैल सिंह जैसे मैडम के यहाँ झाडू लगाने को भी तैयार रहना चाहिए???सोमनाथ जी ने जिस कारण से ये कदम उठाया हो वही जाने..हो सकता है उनकी लिप्सा ही रही हो..मगर पद छोड़ के वे कोई अच्छी परंपरा की शुरुआत नहीं करते ऐसा मेरा मानना है...अच्छे ब्लॉग एवं बढ़िया आलेख के लिए बधाई आपको....धन्यवाद.