Sunday, March 29, 2009

पहले से ज्यादा बेरहम पाता हूं

बहुत कुछ खोया है मैंने

गांव से दिल्ली के सफर में

यह एहसास दिलाया मुझे

आज बचपन के एक दोस्त ने

अब मैं जब खुद को तलाशता हूं

आईना में अपना चेहरा

पहले से ज्यादा बेरहम पाता हूं।

(कुछ दिनों पहले ऑफिस में बातचीत के दौरान विवेक ने मुझे कविता लिखने के लिए प्रेरित किया था। कविता तो नहीं लिख पाया, अब यह तुकबंदी जैसी भी बन पड़ी है विवेक को समर्पित है।)

4 comments:

संगीता पुरी said...

अच्‍छी कोशिश की है ... लिखते रहें।

Anonymous said...

श्रीकांत का जासूस. महाढोंगी मैथिली कुत्ता.

ऋषभ कृष्ण सक्सेना said...

अरे क्या बात है झा जी, आप तो अच्छे खासे कवि बन गए.
लेकिन ये अनोनिमस महोदय कौन हैं, जो मेरठ की भडास निकालने पर तुले हैं.
खैर.. कविता और आपके मुंह से... हा.. हा.. हा..
यकीन नहीं होता. लेकिन वाकई अच्छी है. लिखते रहिये कवितायें भी.

विवेक said...

वही विवेक कहता है कि यकीन मानिए, कविता बहुत अच्छी बन पड़ी है...आगाज ऐसा है, तो सफर बेशक बेहतरीन होगा...बस आप रुकिएगा नहीं.