Saturday, June 19, 2010
Tuesday, June 1, 2010
...फिर क्रिकेटरों को सम्मान क्यों मिले?
एक खिलाड़ी का सबसे बड़ा सपना क्या होता है? मेरे जैसे लोगों के हिसाब से तो देश को रिप्रजेंट करना। लेकिन भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और भारतीय क्रिकेटर हम जैसे लोगों की राय से इत्तफाक नहीं रखते। ऐसे कितने क्रिकेटर होंगे, जो सही मायनों में यह कह सकेंगे कि वे देश के लिए खेल चुके हैं। अगर गिनने बैठें तो हाथों की उंगलियां भी काफी पड़ जाएंगी। क्रिकेटरों के सामने फिर एक मौका आया था कि वे देश को रिप्रजेंट करें लेकिन बोर्ड ने बिजी शिड्यूल का हवाला देते हुए चीन में होने वाले एशियन गेम्स के लिए पुरुष और महिला टीमें भेजने से इनकार कर दिया।
वैसे, ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले 1998 में कुआलालंपुर में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए भी जब क्रिकेट टीम भेजने की बात आई तो पहले तो बोर्ड इसके लिए राजी नहीं हुआ लेकिन बाद में कई तरफ से दबाव पड़ने के बाद बी ग्रेड की टीम भेज दी। वहीं, मुख्य टीम को टोरंटो में पाकिस्तान के साथ 5 वनडे मैचों की सीरीज खेलने के लिए भेज दिया। हो सकता है कि दबाव पड़ने के बाद इस बार भी मुख्य टीम को न्यू जीलैंड के साथ घरेलू सीरीज खेलने के लिए रोक लिया जाए और बी ग्रेड की टीम को चीन एशियन गेम्स के लिए भेज दिया जाए।
ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसे खेल आयोजनों जिनमें राष्ट्रीय टीम को भेजना होता है बोर्ड उससे पिंड छुड़ाने में क्यों लग जाता है? जवाब है- क्रिकेट का अर्थशास्त्र। राष्ट्रीयता के आधार पर खेले जाने एशियन गेम्स, कॉमनवेल्थ गेम्स या फिर ओलिंपिक में विजेता को सिर्फ मेडल मिलता है,प्राइज मनी नहीं। दूसरी बात-अगर क्रिकेट टीम घरेलू मैदानों पर कोई सीरीज खेलेगी तो बीसीसीआई को टिकटों की बिक्री और प्रायोजकों से मोटी आमदनी होगी। वहीं,एशियन गेम्स से बीसीसीआई को कोई आमदनी नहीं होगी और खिलाड़ियों की मैच फीस के लिए भी अपने खजाने का मुंह खोलना पड़ेगा, जो बोर्ड के हुक्मरानों को कतई मंजूर नहीं है।
जाहिर है टीम भेजने को लेकर पैसे का पेच फंसा रहता है। अब 'राष्ट्रवादी' तर्क दे सकते हैं कि देश के सामने पैसा की क्या बिसात है, लेकिन हमारे क्रिकेटर और बोर्ड की राय हमसे आपसे जुदा है। कानूनन बीसीसीआई को टीम भेजने के लिए बाध्य भी नहीं किया जा सकता है क्योंकि वह अपने संसाधनों के बूते चलने वाली स्वायत्त संस्था है और क्रिकेट टीम भी उसकी है। इसे थोड़ा आगे बढ़कर सोचते हैं। मान लीजिए कि कल दूसरी खेल संस्थाओं के पास भी पर्याप्त संसधान हो जाएं और उन्हें सरकारी सहायता की जरूरत न रह जाए तो क्या वे भी एशियन या ओलिंपिक गेम्स के लिए टीम भेजने से मना कर देंगी? अगर यही हाल रहा और बीसीसीआई पर नकेल नहीं कसी गई तो निश्चित रूप से भविष्य में हमें और भी कई स्वायत्त खेल संघ स्वछंद बनते नजर आएंगे।
मनमौजी बीसीसीआई अगर देश के लिए टीम नहीं भेज सकती तो उसे और क्रिकेटरों को कई तरह की सहूलियत और रियायत क्यों दी जाए? एक क्रिकेट मैच पर सुरक्षा के तामझाम में करोड़ों रुपये खर्च होते हैं लेकिन यह खर्चा सरकार हम टैक्सपेयर्स के पैसे से करती है। क्रिकेटरों को मिले पुरस्कार और उपहार अमूमन टैक्स के दायरे से बाहर रहते हैं। मैदानों के लिए क्रिकेट संघों को जमीन सब्सिडी पर दी जाती है। जो खेल संस्था या खिलाड़ी के लिए देश को रिप्रजेंट करने का समय नहीं है, उन्हें फिर जनता की कीमत पर ये सहूलयितें क्यों मिले। सरकार को स्पष्ट करना चाहिए कि अगर बोर्ड एशियन, कॉमनवेल्थ गेम्स या इस तरह के दूसरे खेल आयोजनों में टीम भेजने से इंकार करता है तो उसे रियायत और सहूलियतों की उम्मीद भी छोड़ देनी चाहिए। यही नहीं, क्रिकेटरों को राष्ट्रीय खेल पुरस्कार और सम्मान देने पर भी रोक लगनी चाहिए। खेलरत्न या अर्जुन पुरस्कार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का गौरवपूर्ण प्रतिनिधित्व करने वाले खिलाड़ियों को दिया जाए न कि खुद के लिए मनी मेकिंग मशीन बने क्रिकेटरों को दिया जाए।
Saturday, December 5, 2009
लुधियाना को लगा मुंबई का रोग
लुधियाना में हुई हिंसा का यह फोटो आज एक अखबार में छपा है। फोटो यह बताने के लिए काफी है कि 'दिल देने और दिल लेने में नंबर वन' पंजाबियों के दिलों में प्रवासी मजदूर समुदाय के प्रति सिर्फ २४ घंटे के भीतर पुलिस-प्रशासन ने कितनी नफरत भर दी और उन्हें एक-दूसरे की जान का दुश्मन बना दिया।
मजदूर वहां किस तरह से लूट का शिकार हो रहे हैं, इसे स्थानीय अखबार में छपी पटना के मजदूर राम कुमार की कहानी के जरिए भी समझा जा सकता है। काम की तलाश में पटना से लुधियाना आया था। उसने तीन साल लुधियाना की एक फैक्टरी में नौकरी की और इस दौरान वह चार बार लुटा। तीन बार वह शिकायत करने की हिम्मत नहीं कर सका। दो-तीन महीनों में वह जितना कमाता था, किसी न किसी रात लुटेरे घात लगाकर उससे लूट लेते। राम कुमार ने बेटी की शादी के लिए कुछ हज़ार रुपये जोड़े थे, वह भी लुटेरों ने छीन लिए। निराश होकर राम कुमार ने लुधियाना से मुंह मोड़ लिया और यहां दोबारा न आने की कसम खाकर पटना लौट गया कि बेटी की शादी हो या न हो, वह पटना में ही काम करेगा।
राम कुमार जैसे कई मजदूर जो रोजी-रोटी और परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए बिहार से पंजाब तक का सफर तय कर रहे थे, अब उनके कदम ठिठकने लगे हैं। कई तो पंजाब से अपने घर आने के बाद वहां लौटने की भी नहीं सोच रहे हैं। उनकी मनोदशा को जताने के लिए दुष्यंत कुमार की ये पक्तियां काफी हैं...
कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहां दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहां से चले और उम्र भर के लिए
॥