Sunday, October 26, 2008

जामिया नगर का एनकाउंटर और बीबीसी का सच

दिल्ली में बटला हाउस में हुए एनकाउंटर पर उंगली कई खेमों से उठ रही है और इसकी जांच भी चल रही है। लेकिन कुछ मीडिया संगठन और बुद्धिजीवी जांच खत्म होने से पहले ही फैसला सुना देना चाहते हैं। बीबीसी भी इनमें से एक है। जिस दिन एनकाउंटर हुआ उसी दिन बीबीसी ने बिना किसी तथ्य के ही यह स्थापित करने की कोशिश की कि एनकाउंटर फर्जी है। (पढ़ें: जामिया नगर का सच)

उसके बाद से भी बीबीसी हिंदी की साइट पर पत्रकारिता की तमाम मर्यादाओं की धज्जियां उड़ाते हुए यह प्रयास जारी है। यह और बात है कि किसी भी खबर में कोई तथ्य नहीं होता है सिर्फ माकूल लोगों के विचारों के जरिए अपनी थोथी बात को सिद्ध करने की कोशिश होती है। सवाल यह है कि बीबीसी, जो अपनी प्रमाणिकता के लिए जानी जाती रही है, को इतनी जल्दी क्यों है इस मुठभेड़ को फर्जी साबित करने की।

दुनिया जानती है कि लंदन धमाकों के बाद वहां ब्राजील के एक नगारिक चार्ल्स डी मैनेजेज को पुलिस ने सिर्फ इसलिए मार दिया क्योंकि वह तेजी से चल रहे थे। उनसे उनकी पहचान के बारे में पूछा तक नहीं गया था। तब बीबीसी ने इसकी रिपोर्टिंग हू-ब-हू पुलिसिया बयान के आधार पर की थी। (पढ़ें: गलत आदमी मारा गया)

लेकिन जामिया नगर एनकाउंटर के बाद बीबीसी ने ऐसा संयम दिखाना या पत्रकारिता के मानदंडों का पालन करना उचित नहीं समझा। हर मामले में कुछ लोग पक्ष में और कुछ विरोध में मिल जाएंगे। यह तो देखने वाले के नजरिए पर निर्भर करता है। लेकिन यह तो कतई बीबीसी की प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं है कि बिना किसी तथ्य के सिर्फ विचारों के आधार पर एक पक्ष को स्थापित करने की कोशिश की जाए। (पढ़ें: जीने का अधिकार कितना सुरक्षित?)

दुनिया और पत्रकारिता, दोनों की स्थापित मान्यता है कि अगर विचार से कोई चीज स्थापित करनी हो तो सभी पक्षों को बराबर का मौका दिया जाए। यह देखकर दुख होता है कि बीबीसी (या उसके पत्रकार) इस मामले में इस सामान्य सिद्धांत का पालन नहीं कर रहे हैं और दूसरे पक्ष को मौका दिए बगैर अपनी बात को सिद्ध करने में लगे हैं।

Friday, October 24, 2008

फिर हिंदू कैसे आतंकवादी हो गए?

ज्यादा दिन नहीं हुआ है जब मीडिया और बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका कह रहा था कि आतंकवाद को इस्लाम से जोड़कर न देखा जाए। आतंकवादियों को कोई मजहब नहीं होता है। वैसे यहां तक तो मैं भी मीडिया और बुद्धिजीवियों की राय से सहमत हूं। लेकिन ये सारे तर्क और विवेकपूर्ण बातें धरी रह गईं जब मालेगांव और साबरकांठा विस्फोट में हिंदू आरोपी बनाए गए। कल तक चीख-चीखकर संयमी और विवेकी बनने की नसीहत देने वाले लोग अब अपना उपदेश ही भूल गए हैं। अब उसी मीडिया में हेडिंग लगा रही है- Millitant Hindu activists held for malegaon blasts. कुछ और सुर्खियां हैं - Hindu group behind Malegaon, Modasa Ramzan blast, Hindu terror link to malegaon blast.


इन धमाकों की साजिश करनेवाले अगर हिंदू हैं, तो दूसरे मामलों की तरह ही कानून अपना काम करेगा और सजा देगा। इसमें 'दूसरे संप्रदाय' के विपरीत हिंदुओं को कोई आपत्ति भी नहीं होगी। आरोपियों का नाम सामने आते ही 'हिंदू हितों के पैरोकारों' ने आगे आकर सराहनीय बयान दिया है। इसके बावजूद मीडिया और बुद्धिजीवियों के उस बड़े तबके का आतंकवाद व धर्म के संबंध पर सुर बदल गए हैं, पर सवाल उठता है क्यों? शायद इसके पीछे भी वही मानसिकता है कि बहुसंख्यकों की भावनाओं से जब चाहो खिलवाड़ कर लो, परवाह कौन करता है।

Friday, October 10, 2008

बिन फेरे हम तेरे तो ठीक है, लेकिन...

हिंदू धर्म में विवाह को 16 संस्कारों में से एक माना गया है और मनुस्मृति में विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं- ब्रह्म विवाह, दैव विवाह, अर्श विवाह, प्रजापत्य विवाह, गंधर्व विवाह, असुर विवाह, राक्षस विवाह और पैशाच विवाह। अब भौतिकवाद और भोगवाद से प्रेरित महानगरीय जीवनशैली में इसमें एक प्रकार और जुड़ गया है- लिव इन रिलेशनशिप। अगर महाराष्ट्र सरकार के प्रस्ताव को केंद्र सरकार ने मान लिया और भारतीय दंड संहित की धारा 125 में संशोधन कर दिया तो इस पर कानूनी मुहर भी लग जाएगी। लेकिन इसे लेकर मेरे मन में कुछ सवाल हैं, जिसके आधार नैतिक भी हैं और कानूनी भी।
जहां तक मेरी समझ है लिव इन रिलेशनशिप की पूरी अवधारणा ही शारीरिक संबंधों पर आधारित है, जबकि भारतीय संस्कृति में पति और पत्नी के रिश्ते में शारीरिक संबंध से अधिक आत्मिक संबंध का महत्व होता है। आज के महानगरीय जीवन में लोग लिव इन में इसलिए रहना चाहते हैं क्योंकि वे वैवाहिक जीवन का सुख तो लेना चाहते हैं लेकिन उसकी जिम्मेदारियों को निभाना नहीं चाहते यानी कि शादी के साइड इफेक्ट्स से बचना चाहते हैं।

जैसे कि अगर जोड़े में से किसी एक का मां-बाप या वह खुद बीमार है तो दूसरा उनके देखभाल के दायित्व को निभाए यह जरूरी नहीं होता, लेकिन शादी के संबंध में आप चाहे या न चाहें इस नैतिक दायित्व से बच नहीं सकते। अब ऐसे में सवाल उठता है कि जब कोई महिला पत्नी के कर्तव्य से बचना चाहती है तो उसे पत्नी के अधिकार क्यों दिए जाएं? हमारा संविधान भी कहता है कि मौलिक कर्तव्यों का निर्वाह किए बिना मौलिक अधिकारों का कोई मतलब नहीं है।

लिव इन रिलेशनशिप की वजह से परिवार नामक संस्था भी कमजोर होगी। जरा सोचिए जब पति-पत्नी नहीं होंगे तो साली-जीजा, सास-ससूर, जीजा-साला जैसे कितने रिश्तों का नामोनिशान मिट जाएगा और यह सुखद एहसास भी खत्म हो जाएगा। मुझे लगता है कि लिव इन में रहते ही वही लोग हैं जो स्थायी रिश्ता नहीं बनाना चाहते हैं। फिर इसे कानून बनाकर रिश्ते का नाम क्यों दिया जाए? क्या इससे जोड़े की स्वच्छंदता नहीं खत्म हो जाएगी?

ये तो कुछ नैतिक पहलू थे, लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता देने से कानूनी पेचदगियां भी बढ़ेंगी। मान लीजिए अगर कोई शादीशुदा मर्द महाराष्ट्र सरकार के प्रस्ताव के मुताबिक 'पर्याप्त समय' तक किसी महिला के साथ लिव इन में रहता है तो क्या उसके ऊपर दो शादियों का केस हो सकेगा? लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ और यह कानून केवल बिना शादी के साथ रह रही महिला की आर्थिक सुरक्षा के लिए है तो इसके दूरगामी परिणाम की कल्पना करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

Thursday, October 2, 2008

क्या शिवलिंग और बिकनी पहनीं महिला में कोई अंतर नहीं है?

इंडोनेशिया में हाल ही में लागू किए गए अश्लीलता विरोधी कानून (बैन बिकनी बिल) का विरोध देश के कई हिस्सों में इन दिनों जोरों पर है। खासकर बाली में, जहां 93 प्रतिशत आबादी हिंदुओं की है। बाली में इस कानून का विरोध होने की कई वजहें हैं। यह कि सूबा देश का सबसे चर्चित पर्यटन स्थल है, जाहिर है जो लोग बाहर से आते हैं वह समुद्र किनारे बुर्का पहनकर तो नहीं घूमेंगे! स्थानीय लोगों को डर है कि कट्टरपंथी मुस्लिमों को खुश करने के लिए बनाए गए इस कानून के डर से कहीं पर्यटक यहां आने से ही ना डरने लगें। और अगर ऐसा हुआ तो निश्चित रूप से उनकी रोजी-रोटी पर असर पड़ेगा।

इस कानून का इससे भी खतरनाक पहलू यह है कि इससे हिंदुओं की कई धार्मिक गतिविधियों पर रोक लग सकती है। हिंदुओं को लग रहा है कि नए कानून से उनका धर्म खतरे में पड़ जाएगा। इस कानून के अनुसार हिंदू धर्म के लोग भगवान शिव की पूजा खुलेआम नहीं कर पाएंगे, क्योंकि कुछ लोगों के अनुसार शिवलिंग की पूजा नग्नता का सामाजिक स्तर पर प्रदर्शन है। इसलिए उस पर पाबंदी लगाना जरूरी है। यही नहीं, इस कानून के लागू होने से 'ओम ज्योतिर्लिन्गाय नम:' जैसे संस्कृत के मंत्र भी अश्लीलता की श्रेणी में आ सकते हैं।

इंडोनेशिया में यह शंका जताई जा रही है कि अश्लीलता पर रोक की आड़ में इस्लाम के शरिया कानूनों को देश की गैर मुस्लिम आबादी पर थोपने का प्रयास किया जा रहा है। कई बार पहले भी ऐसे कट्टरपंथी लोगों ने इस्लाम की रक्षा के नाम पर वहां के तमाम होटलों और नाइट क्लबों पर धावा बोला था और इस तरह लोगों में दहशत फैलाने की कोशिश की थी।

इस मसले पर नवभारत टाइम्स में गुरुवार को लेख छपा है, 'बाली में यह कैसा तूफान'