बहुत कुछ खोया है मैंने
गांव से दिल्ली के सफर में
यह एहसास दिलाया मुझे
आज बचपन के एक दोस्त ने
अब मैं जब खुद को तलाशता हूं
आईना में अपना चेहरा
पहले से ज्यादा बेरहम पाता हूं।
(कुछ दिनों पहले ऑफिस में बातचीत के दौरान विवेक ने मुझे कविता लिखने के लिए प्रेरित किया था। कविता तो नहीं लिख पाया, अब यह तुकबंदी जैसी भी बन पड़ी है विवेक को समर्पित है।)
4 comments:
अच्छी कोशिश की है ... लिखते रहें।
श्रीकांत का जासूस. महाढोंगी मैथिली कुत्ता.
अरे क्या बात है झा जी, आप तो अच्छे खासे कवि बन गए.
लेकिन ये अनोनिमस महोदय कौन हैं, जो मेरठ की भडास निकालने पर तुले हैं.
खैर.. कविता और आपके मुंह से... हा.. हा.. हा..
यकीन नहीं होता. लेकिन वाकई अच्छी है. लिखते रहिये कवितायें भी.
वही विवेक कहता है कि यकीन मानिए, कविता बहुत अच्छी बन पड़ी है...आगाज ऐसा है, तो सफर बेशक बेहतरीन होगा...बस आप रुकिएगा नहीं.
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